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पर उसने एक दिम नबीन मन्दिर में भोजन करने के लिए पांडवों को निमंत्रित किया। निमंत्रण के मनुसार पौषों पांडव अपनी माता कुन्ती सहित पाये । पाते ही मंदिर के अपूर्व शोभा का प्रलोकन कर बहुत प्रसन्न हुए । दुर्योधन ने इनको बड़े आदर-सत्कार के साथ भोजन कराकर इनके सोने का भी वहीं प्रबन्ध कर दिया जिमडोहानि को रोसन ग्रहः शया करें निन्द्रा पाने पर पांडवों ने वहीं पर शयन किया। उनके शयन करने के कुछ समय पश्चात् ही कौरवों ने अपनी दुष्टता से लाख के सदन में पग्नि लगा दी। लाख के कारण मग्नि ने अपनी भयंकरता बहुत शीघ्र ही धारण कर ली। जब लाख तप-तप कर पांडवों के ऊपर गिरने लगी तब वे सब के सब सचेत होकर कौरवों की दुष्टता जानकर बाहर निकलने का मार्ग न देख बहुत चितित हुए तब ज्योतिष-शास्त्रज्ञ सहदेव कहने लगे कि हे भाता पर एक सुरंग है। उसके मार्ग से हम सब निकल सकेगें यह सुनते ही भीम ने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई तो उसको एक शिला दिखाई दी । भीम उसे उठाकर अपने मार्ग को निष्कंटक कर कुन्ती सहित पापों भाई उस मार्ग से निषिधन बाहर निकल गये और इच्छानुसार पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए इस्तनापुर पहुंचे। उधर सब लोग कौरवों की दुष्टता जानकर उनकी निन्दा करने लगे। पांडव लोग वहाँ कुछ दिन रहकर देश यात्रा करते हुए पीछे लौटकर भाकंदी नगरी में प्रा पहुंचे। उसके स्वामी द्र.पत थे उसकी स्त्री का जयावती था। उसके द्रोपती नाम की पुत्री थी। रूप की सुन्दरता में वह प्रसिर यी।।
जब महाराज दूपत ने देखा कि पुत्री युवती हो गयी है । तब उन्हें उसके विवाह की चिंता ने चिन्तित किया। फिर उन्होंने अपने मंत्रियों से परामर्श कर एक शुभ मुहूर्त में पुत्री का स्वयंवर मार्रम करवाया ! देश-देश के राजामों और महाराजामों के लिए निमंत्रण-पत्र भेजा गया। दुर्योधन प्रादि सभी राजा-महाराजा स्वयंवर मण्डप में उपस्पित हए।
उस समय यह नियम निश्चित किया गया कि जो इस राधावेश को देधेगा, वही कन्या का स्वामी होगा । वैवयोग से पांडव कुमार भी वहां मा गये। इन्हें वे लोग पहचान न सके क्योंकि वे अपने वेष को पलट कर कृत्रिम वेष में रहते थे।
स्वयंवर में पाये हुए राजा-महाराजा मावि में से किसी का साहस नहीं हुमा कि राधावेध को वेधे । सबके मुख निष्प्रभ हो गये। तब प्रर्जुन ने उठकर कहा 'जो मनुष्य इस राधावेष को वेधेगा, उसे कलहीन या जातिहीन होने से कन्या के मिलने में तो कोई संदेह नहीं होगा। ऐसा यदि संशय न हो तो में भी अपने पुरुषार्थ की परीक्षा कहे। तब राणामों ने कहा कि 'हमें जाति तथा कुल से कुछ प्रयोजन नहीं, तुम अपने पुरुषार्थ से इस कर्तव्य को पूरा करो।'
तब उनके कहते ही महाबाहु, पराक्रमी अर्जुन ने कटिबद्ध होकर सब राजामों की उपस्थिति में ऊपर दी और नीचे दृष्टि करके बात की बात में उस राधावेष को वेष दिया । वेध होते ही द्रौपदी मे पाकर पांचों पाण्डवों के मध्य में बुद्धिमान प्रर्जुन के कंठ में माला डाल दी।
इतने में वायु के अधिक वेग से माला टूट जाने से पांचों पर पुष्प गिर गये । माला के टटते ही लोगों में हल्ला मच गया कि प्रौपदी अपने धर्म से भ्रष्ट है। इसमे पांचों को अपना पति बनाया है। पश्चात् राजा लोग भी बिगड़ पड़े पौर कहने लगे-'हम राजकुमारों के होते हुए क्या ये कंगाल भिखारी इस राजपुत्री को परणेंगे । इन को मारकर सुम्बरी को इनसेलेना चाहिए।'
ऐसा फहकर सब युद्ध की तैयारियां करने लगे। इतने में किसी विचारवान पुरुष ने उनसे कहा-'पहले उनके पास दूत भेजकर कन्या को वापिस लौटाने के लिए कहलाना चाहिए। यदि ये इसे स्वीकार न करें तो युद्ध का समारम्भ है ही।'