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णमोकार प्रेष
रानियों के नाम क्रम से धृतराष्ट्र, पांडु, और विदुर नाम के तीन पुत्र हुए। इनमें धृतराष्ट्र की स्त्री का नाम गांधारी था और पांडु के दो स्त्रियां थी । उन के नाम थे -कुन्ती तथा माद्री। इनमें से घृतराष्ट्र के तो दुर्योधनादिक पुत्र हुए और पांडु की कुन्सी नाम की स्त्री के युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तथा माद्री के सहदेव प्रौर नकुल पुत्र हुए 1 कुन्ती का कन्या अवस्था में ही किसी कारण विशेष से, परस्पर संसर्ग हो जाने से कर्ण का प्रसव पहले ही हो चुका था। इस प्रकार महाराज घृत धन, संपत्ति, राज्य, वैभव, कुटुम्ब, परिवार तथा पुत्र-पौत्रादि से पूर्ण सुखी रहते हुए अपनी प्रजा का नीति-पूर्वक पालन करते थे।
एक बार उन्होंने शरद ऋतु में गगन मंडल में नाना प्रकार के वर्षों से शोभित बादल को क्षणमात्र में ही वायु के वेग से नाम शेष होते देखा प्रर्थात् देखते-देखते ही बादलों को नष्ट होते देखा तब उन्हें संसार से वैराग्य हुप्रा । वे विचारने लगे कि ये बादल जिस प्रकार दृष्टिगोचर होते हुए ही नष्ट हो गए उसी प्रकार यह संसार क्षणभंगुर है । इन स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु प्रादि तथा धन, संपत्ति और इन्द्रिय भोगों की घोर प्रासक्त होकर अपने हित की मोर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया। मोह रूपी गहन अंधकार ने मेरी दोनों प्रांखों को ऐसा अन्धा बना डाला जिससे मुझे अपने कल्याण का मार्ग नहीं दिखाई दिया इसी से मैं प्रब अपने प्रात्म-हित के लिए अनादि काल से पीछा करते हुए इन कर्म-शत्रुनों का नाश कर मोक्ष सुख को देने वाली जिन-दीक्षा ग्रहण करूं जिसके प्रभाव से मैं सच्चा प्रात्मीक सुख प्राप्त कर सकूँ ।
इस प्रकार की स्थिति विचार कर महाराज धूत ने बड़े पुत्र धृतराष्ट्र को तो राज्य-भार सौंपा और पांधुनो सुनमाज पह देकर निमुद के मार-माग होता-सुख की साधक जिन दीक्षा धारण कर ली। जिन-दीक्षा का लाभ कुगति में जाने वालों के लिए बहुत कठिन है। इसके बाद धुत मुनि ने तो अनेक दिनों तक कठिन से कठिन तपश्चरण कर शुक्लध्यान के बल से केवलज्ञान को प्राप्त कर अन्त में शाश्वत प्रक्षयानंत मोक्ष-लाभ प्राप्त किया।
इधर विदुर मुनिराज देश विदेश में धर्मोपदेश के लिए विहार करने लगे, उधर धृतराष्ट्र पार के साथ राज्य का पालन करते सुखपूर्वक प्रपना समय बिताते थे । एक दिन दोनों भाइयों ने एक भ्रमर को कमल के भीतर मराहमा देखा। उपके अवलोकन मात्र से उन्हें बड़ा वैराग्य हमा। उन्होंने उसी समय अपने राज्य के दो विभाग कर एक भाग दुर्योधनादिक के लिए और एक भाग युधिष्ठिरादि के लिए सौंप दिया और स्वयं दोनों भाइयों ने जिमदीक्षा ग्रहण कर ली। इसके प्रनतर कौरव और पांडव परस्पर अनुराग पूर्वक प्रजा का पालन करते हुए सुखपूर्वक दिन व्यतीत करने लगे वे काल की गति को नहीं समझते थे । कौरवों के मामा शकुनि से अपने भानजे दुर्योधनादिक के लिए और पाडु के पुत्र युधिष्ठिरादिक के लिए समान राज्य-भाग की व्यवस्था देखकर अपने मन में विचारा कि माघा राज्य तो केवल पांच पांडवों के लिये दिया गया है और प्राधा राज्य सौ कौरवों के लिए इससे पांडव तो बडे प्रतापी मालूम होते हैं और कौरवों का प्रताप इनके सम्मुख कुछ भी मालूम नहीं होता ऐसा विचार कर उसने प्रेमवश होकर कौरवों के कान भरे कि तुम्हें कुछ ध्यान भी है ? कहां तो तुम सौ भाइयों के लिए
आधा राज्य, जिससे तुम लोगों का वस्त्र-शस्त्रादि का प्रबन्ध भी ठीक-ठीक नहीं हो सकता और कहा इन पांच पांडवों के लिए प्राधा राज्य जिससे ये लोग कैसे तेजस्वी और धनपूरित दिखाई देते हैं। ठीक तो यह है कि सब वेषों में धन का ही वेष उत्तम गिना जाता है। तुम स्वयं ही यह बात सोचो कि जितना राज्य पांच व्यक्तियों को दिया गया उतना ही सो व्यक्तियों के लिए देना उचित पा क्या? इस प्रकार शनि के प्रतिदिन उत्तेजित करते रहने से कौरवों की प्रकृति में दुष्टता मा ही गई । पीछे कुछ समय के पश्चात् दुर्योधन ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर एक लाख से युक्त सुन्दर महल बनवाया। उसके पूर्ण होने