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________________ णमोकार पंप तब सबने सहमत होकर अर्जुन के निकट दूत भेजा। दूत ने जाकर कहा-'राजकुमारी ने बड़ी मूर्खता की जो राजाओं को छोड़कर तुम्हें अपना स्वामी बनाया। अब तुम्हें चाहिए कि इस राजकन्या को राजाओं के प्रति दान करके उनके प्रेमभाजन होकर सुखपूर्वक भली प्रकार जीवन-यात्रा करो।' शोध के प्रावेश में हो उत्तर में अर्जुन ने दूत से कहा- 'तुम प्रभी जाकर अपने स्वामी से कह दो कि हम राजकूमारी को नहीं देंगे। क्या तुमने इस प्रकार कभी किसी को अपनी वल्लभा देते देखा प्रथवा सुना है । यदि वे लेने का साहस रखते हैं तो रणक्षेत्र में सम्मुख पाकर अपने पराक्रम से हमें पराजित कर लें लेवें । न जाने तुम्हारे स्वामियों में ऐसी दुर्बुद्धि क्यों उत्पन्न हुई है?' ऐसा कहकर अर्जुन ने दूस को उसी समय वहां से निकलवा दिया । दूत ने जाकर सब समाचार राजा लोगों को ज्यों का त्यों सुना दिया । सुनते ही राजा लोग बहुत बिगड़े और युद्ध के लिए तैयार हो गये । तब महाबली अर्जुन युद्ध भूमि में वीर लोगों को एकत्रित हुए देख कर उसी समय श्वसुर के साथ अपने भ्राप्ता और द्रौपदी सहित युद्ध के लिए निकल पड़े । दोनों तरफ के योद्धाओं की मुठभेड़ हो गयो । घोर युद्ध होना प्रारम्भ हुमा । अर्जुन के द्वारा अपने योद्धाओं को विध्वंस होते देखकर दुर्योधन उसी समय अपने भीष्म प्रादि वीरों को साथ लेकर रण-भूमि में प्रा उपस्थित हुए। तब अर्जुन ने भी देखकर विचार किया 'ये तो मेरे पूज्य हैं। इनका वध मेरे हाथ से कैसे हो सकेगा?' निदान उसने अपने एक बाण पर नाम लिखकर भीष्म के ऊपर फेंका। बाण उनकी गोद में जाकर गिरा। तब उन्होंने उसे पढ़कर दुर्योधन से कहा--'देखो जानते हो ये लोग पांडव हैं और ठीक भी है इनके अतिरिक्त इतना पुरुषार्थ और किस का हो सकता है ?' दुर्योधन ने पूछा-'मापने यह कैसे जाना? तब गांगेय (भीष्म) ने पार्थिव (अर्जुन के नाम का बाण दिखला दिया उसे पढ़ते हो दुर्योधन रही-सहो हिम्मत भी हारकर बड़े दुःख के साथ रथ से नीचे उतर कर माया से अश्रुपात करता हुआ पांडवों के सम्मुख जाकर बाहु पसार कर मिला और गद्गद स्वर से कहने लगा-'नाथ । मैं बड़ा प्रभागा हूं। लोकनिंदा से मेरा हृदय जला जा रहा है। परन्तु प्रच्छा हा जो आप सब मेरे पुग्योदय से पा गये । न तो मैंने यह जाना था कि यह लाख का घर बना हमा है प्रोर नहा मुझ यह मालमहाक किस दुष्ट ने उसे जला दिया। परन्तु फिर भी मुझ निरपराधी को लोगों ने अपराधी ठहराया। मेरा बहुत अपयश हुमा । पर ये नियम है कि शुद्धचित्त के मनुष्यों पर कलंक नहीं लगता। इसी कारण मेरे पुण्योदय से मेरा अपयश मिटाने के लिए पाप आ पहुँचे । मापके वियोग रूपी अग्नि से जलता हुँमा मेरा हृदय प्रब शांत हुपा हैऐसा कहकर दोनों पक्ष परस्पर प्रानंदपूर्वक मिले । सब लोगों के चित्त में बड़ा पानंद हुआ। फिर शुभ मुहूर्त में अर्जुन का विवाह दौपदी के साथ हो गया। सब लोग विवाह-कार्य पूर्ण करवा कर अपनी-अपनी राजधानी में गये मोर पूर्ववत् प्रीति पूर्वक रहने लगे। कुछ समय पश्चात् फिर उसी शकुनि ने उनके दिन-प्रतिदिन वैभव को बढ़ते हुए देखकर कौरवों पांडवों की परस्पर मैत्री में बाधा डालना मारंभ किया। सच है-दुष्टों का यही स्वभाव होता है कि उन्हें दूसरों को लड़ाये बिना चैन नहीं पाता। निदान शकुनि ने अपनी बुद्धि की पतुरता से उनके स्नेह को तोड़ ही डाला। अब कौरव लोग शकुनि की उत्तेजना से पांडवों में दोष दूटने लगे जैसे उत्सम पुरुषों के पीछे शाकिनी लग जाती है। एक वित युधिष्ठिर के जी में पाया कि जूमा खेलना चाहिए। उन्हें यह विचार क्या उपजा, इसे दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि पाण से ही उनके भाग्य का चमकता हमा सितारा (सूर्य) मस्त हो गया । सन
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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