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________________ णमोकार मेष कहा है कि - बुद्धि उत्पद्यते ताबुक, व्यवसायश्च तावृशः । सहायास्तावृशश्चय यावृशी भवितव्यता ।। अर्थात् जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है वैसी ही बुद्धि उत्पन्न हो जाती है वैसा ही व्योसाय (काम) सूझता है। वैसे ही सहायक मिल जाते हैं। ठीक यही हाल युधिष्ठिर का हुमा । अतः एक दिन सभा में कौरवों की उपस्थिति में मिटर दुर्योधन के साथ नमः मने लाने लो। दुर्योधन का पासा पड़ता तो बहुत उत्तम था परंतु भीम के हुंकार से वह उल्टा हो जाता या । तब दुर्योधन चितातुर होकर विचारने लगा कि भीम मुझे जीतने नहीं देगा अत: इसको किसी पालम्बन से कहीं भेज देना चाहिए । इतने में ही उसकी बद्धि ने उसका साथ दिया । दुर्योधन भीम से कहने लगा--'महाभाग ! इस समय मैं तृषा से बहुत व्याकुल हो रहा हूँ। उसका उपाय तुम्हें ही करना चाहिए।' तब भीम बोला--'पाप घबराचें नहीं । मैं अभी शीतल और सुगंधित जल लाता हूं। दुर्योधन बोला-'नहीं नहीं, मुझे ऐसे जल की आवश्यकता नहीं। ऐसे जल के लाने वाले तो मेरे यहां भी बहुत हैं।' दुर्योधन बोला---'गंगा के निकलने वाले दुद में कटिपर्यंत प्रवेश कर तुम अपनी गदा से पानी घात करना और उससे जो पानी के छींटे उड़ें, उस पानी को मेरे पीने की इच्छा है।' इस बात को सुनकर यद्यपि भीम की इच्छा जाने की नहीं थी नथापि उसको लज्जाव जाल लाने के लिए जाना पड़ा। इधर दुर्योधन के मन की चिंता मिटी और जीत का पांसा पड़ने लगा। युधिष्ठिर महाराज ने सर्वप्रथम अपना भंडार, दूसरी बार देश, तीसरी बार हाथी, चौथी बार घोड़े, पांचवी चार वाहन तथा गौ आदि पशु हारे और अंत में वे द्रौपदी सहित अंतःपुर भी हार गये। निदान शेष बचे कुछ वस्त्राभूषणादिक भी सब वे हार गये। इतने में भीम जल लेकर पा गये और दुर्योधन से कहने लगे-'लीजिए, आपकी इच्छानुसार मैं जल आया हूं। इसे पीकर माप अपनी तृषा शांत कीजिए। दुर्योधन ने कहा-'अब तो मेरी तृषा शांत हो गयी ।' यह सुनकर भीम को बड़ा प्राश्चर्यमा परन्तु जब युधिष्ठिर को निष्प्रभ देखा तब पूछने लगे-'भाई प्राप विकलचित्त मालूम होते हैं। इसका क्या कारण है ?' तब उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा "हे माता ! सुनमात ठगो गयो या खुष्ट करि । जीत लियो हम माप, राज पाट घर विभी सब ।।" युधिष्ठिर के ऐसे वचन सुनते ही-- भीम भयो तब विकल मति, मन में बडू पछताय ! को ठगो मैं हूँ साही, दियो जु अन्यत्र पठाय ॥' निदान भीम को इसका बड़ा दुःख हुना। इसी समय दुर्योधन इनको यहां से बाहर निकालने के अभिप्राय से कहने लगा-'युधिष्ठिर ! तुम जानते हो कि जो लोग अपना गौरव चाहते हैं उन्हें दूसरे के देश और दूसरे के घर में रहना अच्छा नहीं लगता क्योंकि दूसरों की वसुंधरा उनके लिए लघुता का कारण होती है, जैसे सूर्य मण्डल को प्राप्त
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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