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णमोकार ग्रंथ
व्युत्सर्ग तप--
___ धनधान्यादि बाह्य परिग्रह और राग द्वेष मोह प्रादि अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। ध्यान सप
चिस की वृत्ति को अन्य सब क्रियाओं से खींचकर एक ज्ञेय की तरफ स्थिर करना एकाग्रचिन्तानिरोध वा ध्यान तप है । यह ध्यान उत्तम सहनन वालों के प्रर्थात् छह संहननों में से पहले वा वध वृषभ नाराच संहनन, वमनाराच संहनन और नाराच सेंहनन के धारक पुरुषों के अतिरिक्त अधिक से अधिक अन्तमुहर्त पर्यन्त रहता है। फिर दूसरे ज्ञेय पर चला जाता है । यही तीन संहनन ध्यान के कारण है। यह ध्यान पात, रौद्र, धर्म, शुक्ल के भेद से चार प्रकार है। इनमें से प्रात, रौद्र ये दो अप्रशस्त- धर्म पौर शुक्ल ध्यान प्रशस्त हैं । अब पार्तध्यान का लक्षण वर्णन किया जाता है
जिससे परिणाम दुखरूप हो वह प्रार्तध्यान है। इसके चार भेद हैं । इष्ट, प्रिय, स्त्री, पुत्र, कुटुम्बी, मित्रादि, चेतन, प्रचेतन पदार्थों के वियोग होने पर उनकी प्राप्ति के लिए बारम्बार चिन्तवन करना, चिन्तातुर होना इष्ट वियोगज पार्तध्यान है
अनिष्ट दुखदाई स्त्री पुत्रादि तथा पशु व खोटे पदार्थ का संयोग होने पर कलुषित परिणाम होना अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है।
रोगनित पीड़ा होने पर अधीर होकर संक्लेशस्वरूप परिणाम होना वेदनाजनित प्रार्तध्यान है और प्रागामी काल में भोगोपभोगादि की प्राप्ति के लिए निदान करना और सदैव इसको वाधा रूप परिणाम रखना निदानबंध प्रार्तध्यान मुख्यतया तिर्यच गति का कारण है। परन्तु सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव होने के पश्चात् (थावर विकलत्रय पशुमेंनहि उपजत सम्यकधारी) इस वाक्य के अनुसार तियच गति का कारण नहीं होता है । मिथ्यात्व गुणस्थान प्रादि से लेकर पांचवे देशविरत संशकगुणस्थान तक चारों पौर छठे प्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान में निदान बंध रहित शेष तीन बार्तध्यान होते हैं। ये संसार की । परिपाटी से उत्पन्न भावभ्रमण के कारण स्वतःस्वभाव बिना प्रयत्न होते हैं। वह त्यामने योग्य
निर्दय भावों का होना रौद्र ध्यान है । यह चार प्रकार का होता है। अपने मन, वचन, काय से जीवों की हिंसा करने, कराने, कराना करे हुए में हर्षमानना मृषानन्द रोद्र ध्यान है। चोरी कराना व की हुई में आनन्द मानना चौर्यानन्द है । संसारिक सामग्री का बहुत संग्रह करना, कराना व की हुई देखकर हर्ष मानना परिग्रहानन्द रौद्रध्यान है । यह चार प्रकार का ध्यान है। यह चार प्रकार रौद्रध्यान नर्क गति का कारण है । परन्तु सम्यक्त्व का सद्भाव होने से (प्रथम नरक बिन षट् भू ज्योतिषवान भवन षड् नारी, पावर विकलत्रय पशु में नहि उपजत समकितधारी) इस वाक्य के अनुसार मन्द होने से नरक गति के कारण नहीं होते हैं। (प्रथम नरक बिन षड् भू) इस पद का अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पहले जिसने नरक मायु का बन्ध कर लिया हो वह रत्नप्रभ भूमि मर्थात् पहले नरक में ही जीव जघन्य व मध्यम स्थिति पर्यन्त ही दुखों को अनुभव करता है उसे वहाँ बहुत दिवस पर्यन्त दुःख सहन नहीं करने पढ़ते यह सम्यक्त्व की महिमा है । यह पंचम गुणस्थान तक बिना प्रयत्न स्वतः होता है, इसलिए त्यागने योग्य हैं। धर्म ध्यान
भाझा विजय, अपाय विषय, विपाक विषय और संस्थान विषय, यह धर्म ध्यान के चार प्रकार