________________
२४२
अथ सामायिक प्रतिमा स्वरूप प्रारम्भ :
प्रार्या छंद
चतुरात्तं त्रिसमचतुः प्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषध, स्त्रियोगशुद्ध स्त्रिसन्ध्यमभिवावी ॥
अर्थात् - जिसके प्रावर्त्त के चार त्रितय है और तीनों सन्ध्यात्रों में जो प्रभिवन्दना करता है उसे सामायिक संज्ञक तीसरी प्रतिमा का धारी कहते हैं ।
णमोकार ग्रंथ
भावार्थ - प्रभात, मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों समय उत्कृष्ट छह घड़ी, मध्यम चार घड़ी और जघन्य दो घड़ी योग्यतानुसार नियमपूर्वक नियत समय पर तथा नियत समय तक ध्यान के डिगाने वाले कारणों से रहित निरुपद्रव एकांत स्थान में पद्मासन या खड्गासन से इन्द्रियों के व्यापार व विषयों से विरक्त होते हुए मन, वचन, काय की शुद्धता पूर्वक सामायिक के यादि पन्त में चारों दिशाओं में एक-एक नमस्कार और चारों दिशाओं में नव णमोकार मंत्र अर्थ सहित तीन प्रावर्ति ( दोनों हाथों की प्रजलि जोड़कर दाहिने हाथ की ओर से तीन बार फिराना) और एक-एक शिरोनति ( दोनों हाथ जोड़ नमस्कार ) करे । तत्पश्चात् शरीर से निर्ममत्व होता हुया स्थिर चिस करके सामायिक के वन्दना आदि पाठों का पंच परमेष्ठी तथा आत्मा के स्वभाव विभावों का चितवन और अपने प्रात्म स्वरूप में उपयोग स्थिर करने का अभ्यास करे, इस प्रकार यह सामायिक संज्ञक तीसरी प्रतिमा होती है । प्रथ प्रोषध प्रतिमा स्वरूप प्रारम्भ :--
मार्या छन्द
पर्व विनेषु चतुष्यपि, मासे मासे स्वशक्तिमनिग्रह्यः । प्रोषधमियम विधायी, प्रणधिपर: प्रोषधानशनः ॥
अर्थात् -- जो महीने महीने चारों ही पर्यो के दिनों में प्रपनी शक्ति को न छिपाकर शुभध्यान में तत्पर होता हुआ आदि ग्रन्त में प्रोषधपूर्वक उपवास करे वह प्रोषधोपवास प्रतिमा का धारी है। भावार्थ - तीसरी प्रतिमा का धारण करने वाला जब प्रत्येक भ्रष्टमो चतुर्दशी के दिन नियमपूर्वक यथा शक्ति जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद रूप प्रोषधोपवास ( एक बार भोजन करने को एकाशन कहते हैं सर्वथा भोजन पान का त्याग कर देना उपवास और धारणा तथा पारणे के दिन एकाशन करके बीच के पर्व दिन में सोलह पहर सर्वथा चार प्रकार के बहार के त्याग करने को प्रोषघोपवास कहते हैं ) कर समस्त प्रारम्भ और विषय छोड़ कषाय की निवृतिपूर्वक धर्मेध्यान में सोलह पहर व्यतीत करता है तब उसे प्रोषधोपवास संज्ञक चतुर्थ प्रतिमा का धारी कहते हैं ।
अथ सविस स्याग प्रतिमा स्वरूप
श्रार्या छन्द
मूल फल शाक शाखा, कशेर कंद प्रसून बोजानि । नामानियो प्रसिसोऽयं सचित्त विरतोषयामूर्तिः ॥
अर्थ- जो कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर ( गांठ अथवा खैर) जिभीकंद, पुष्प और बीज नहीं खाता है वह दयामूर्ति सचित्त त्याग प्रतिमा का धारी भावक है ।
भावार्थ - जब वह दयालु पुरुष श्री जिनेन्द्र देव की आज्ञा और प्राणियों की दया पालते हुए धर्म पालन में तत्पर होता हुआ प्रति कठिनता से जीती जाने वाली जिल्ला इन्द्रिय को दमन कर कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, कन्द, पुष्प, बीज, श्रप्राशुक जल मादि सचित ( जीव सहित ) पदार्थों के