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________________ णमोकार प्रेष २४१ धर्म के यथायं स्वरूप को न समझने से विपरीत श्रद्धान तथा संदेह रूप प्रदान करके व्रत धारण करने के अभिप्राय को न समझ दुसरों की देखा-देखी या और किसी विशेष अभिप्राय से बन धारण करना मिथ्यात्व शल्य है। तपश्चरण, संयम प्रादि के साधन द्वारा प्रागामी काल में विषय भोगों की आकांक्षा प्रति इच्छा करना निदान शल्य है। इन तीन शल्यों से रहित होकर इष्ट-अनिष्ट पदार्थों से राग द्वेष के अभाव और साम्यभाव की प्राप्ति के लिए अतिचार रहित गुणों को प्रर्थात बारह व्रतों के निर्दोष पालन करने वाले को दूसरी वत प्रतिमा का धारी कहते हैं। बारह व्रतों के नाम. इस प्रकार है (१) संकल्पी त्रस हिंसा का त्याग, (२)स्यूल प्रसत्य का त्याग, (३) स्थूल चोरी का त्याग (४) स्वदार संतोष (५) परिग्रह (धन-धान्य मादि का) प्रमाण, (६) दशों दिशाओं में गमन क्षेत्र की मर्यादा (0) प्रतिदिन गमन क्षेत्र की प्रन्तमर्यादा, (व्यर्थ धावर हिंसा प्रादि का त्याग (8) उचित भौगोपभोग का प्रमाण करना (१०) सामायिक (कुछ समय के लिए समस्त जीवों के साम्य भाव धारणकर ध्यानारूढ़ होना), (११) पर्व तिथियों में उपवास आदि करना, (१२) पात्रों को भक्ति पूर्वक चतुर्विध दान देना। इस प्रकार ये पंचाणुव्रत तीन गुण व्रत और चार शिक्षावत मिलकर श्रावक के १२वत कहलाते हैं । इन बारह व्रतों को पांच-पांच प्रतिधार रहित धारण करना पत प्रतिमा है। दार्शनिक श्रावक के प्रष्टमूलगुण के धारण और सप्त व्यसन त्याग के निरतिचार पालने से जो स्थूलपणे पंचाणनों का पालन होला था वह पंचाणुव्रत तो यहाँ निरतिकार पलते हैं और शेष तीन गुणवत मौर चार शिक्षावित खेत की बाढ़ के समान व्रत रूप क्षेत्र की रक्षा करते हैं। यथोक्तं धर्म संग्रह श्रावकाचारे पाणुक्त रक्षार्थ, पल्यते शील सप्तकम् । हास्य बरक्षेत्र वपर्ण क्रियते महती अतिः ।। अर्थ-इनमें तीन गुणत तो अणुव्रतों का उपकार अर्थात् गृहस्थ के अणुक्त गुणों की वृद्धि करते हैं और धार शिक्षावत मुनिव्रत धारणकराने का प्रभ्यास कराते हैं व शिक्षा देते हैं इसीलिए इनको शिक्षानत कहते हैं । ये तीन गुणवत्त प्रौर चार शिक्षायत एवं सप्तशील प्रणवतों को नसैनी की पंक्तियों के समान सहायक होकर महानत रूप महल पर पहुंचा देते हैं यद्यपि प्रती जहां तक संभव हो वहाँ तक अतिचार नहीं लगाते हैं और उनकी अतिचारों से बचाने का प्रयत्न करते हैं तथापि इनमें विवश प्रतिधार लगते हैं क्योंकि यदि बारह वत, प्रत प्रतिमा में ही निरतिचार रूप में पालन हो जाएं तो मागे की सामायिक प्रादि प्रतिमाएँ निष्फल ही ठहरें क्योंकि सामायिक संशक तीसरी प्रतिमा से उद्दिष्टत्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा पर्यन्त इन सप्सशीलों के निरतिचार पालन करने का ही उपदेश है। यथा-सामायिक प्रतिमा में सामायिक और चौथी प्रतिमा से प्रोषधोवास निरतियार होते हैं इसी प्रकार सब प्रसिमामों में सप्त शील निरतिचार होने से अणुक्त महाबत की परिणति को पहुँच जाते हैं प्रतएव बारह बतों का द्वितीय प्रतिमा में ही निरतिधार होना कैसे संभव हो सकता है?
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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