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णमोकार प्रेय
प्रर्थ---इन ग्यारह प्रतिमानों में से पहली छह प्रतिमाओं को धारण करने वाला गहस्थ (जघन्य धावक) उसके पीछे नवमी तक तीन प्रतिमानों को धारण करने वाला ब्रह्मचारी (मध्यम श्रावक) और अन्त की दो प्रतिमानों को धारण करने वाला भिक्षुक (उत्तम श्रावक) कहलाता है। तथा इनके अनन्तर परिग्रह त्यागी मुनि होता है । अब इन प्रतिमाओं का संक्षिप्त स्वरूप कहा जाता है। अथ दर्शन प्रतिमा स्वरूप..
प्रार्या छंद सम्पदर्शन शुखः, संसार भोग निविणः ।
पंच गुरु चरण कारणो, वर्शनिकस्तत्वपथगृह्यः ।। मर्थात् -- जो संसार दारीर भोगों से विरवन शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी केवल पंच परमेष्ठी के चरण कमलों का शरण ग्रहण करने वाला सत्यार्थ मार्ग ग्राही तथा तत्व अर्थात प्रत का मार्ग प्रति निवृति रूप अष्टमूल गुण का धारक हा वह दार्शनिक श्रावक है।
भावार्थ--जो संसार शरीर और भोगोषभोग आदि इष्ट विषयों से विरवर है। जिसने पाक्षिक श्रावक सम्बन्धी प्राचार आदि के पालन करने से सपना सम्यग्दर्शन निर्मल कर लिया है तथा अरिहंत, सिद्ध प्रादि पंच परमेष्ठियों के चरण कमलों का ही जिसको पाश्रय है अर्थात मो भारी मापत्ति पाने पर भी उसके निवारण करने के लिए शासन देवताओं का पाराधन नहीं करता है और मद्य प्रादि के निवति मूलगुणों के प्रतीचारों का प्रभाव करके निरतियार पालनकर आगे को प्रतादि प्रतिमामों के पालन करने में उत्कंठित है और जो अपने पद के अनुसार न्याय पूर्वक माजीविका का करने वाला है वह दर्शन प्रतिमा का पारी दासनिक श्रावक है ऐसा ही अन्यत्र भी कहा है
पाक्षिकाचार सम्पत्या, निर्मलीकृत दर्शनः । विरक्तो भव भोगाभ्या, महंवादि पक्षाधकः ॥ मलास्मूलगुणानी निर्म लयन्नपिमोत्सुकः ।
न्यायां वाविपुः स्थित्य, बघ निकोमतः ।। इन श्लोकों का तात्पर्य पूर्वोक्त श्लोक के अनुसार है। मथ व्रत प्रतिमा स्वरूप
मार्या छन्द निरतिक्रमणमणुव्रत, पंचकमपि शीलसप्तकं चापि ।
धारतये निःशल्यो, योऽसौ अतिनामतोवतिकः ॥ पर्थ-जो शल्य रहित होता हुआ सम्यग्दर्शन और मूलगुणों सहित निरतिचार पांच प्रणुव्रत, तीन गुणवत, और चार शिक्षाप्रत इन बारह ब्रतों को धारण करे वह व्रती श्रावक है ।
भावार्ष-जो पुरुष उपभोग के प्राश्रय करने वाले अन्तरंग प्रतीचार और चेष्टा तथा क्रिया के प्राध्य रहने वाले बहिरंग अतिचारों के रहित निर्मल अखंड सम्यग्दर्शन और मलगणों का घारकोर शल्य रहित है, शल्य नाम बाण का है जो हृदय के लगे हुए बाण के समान शरीर और मन को दुःख देने वाला कर्मोदय जनित विकार हो उसे शल्य कहते हैं। शल्य के तीन भेद हैं-माया, मिथ्यात्व और निदान । मन में पोर वचन में पौर तथा कार्य में कुछ पोर ही करे, ऐसे पापों को गुप्त रखकर दूसरों के दिखाने तथा मान. प्रशंसा. प्रतिष्ठा.लोभ आदि के अभिप्राय से व्रत धारण करना माया शल्य है।