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णमोकार म
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तत्पर है उनको मैष्ठिक श्रावक कहते हैं। नैष्ठिक श्रावक के दार्शनिक प्रादि ग्यारह भेद हैं । जिनको ग्यारह प्रतिमा भी कहते हैं। अब इन ग्यारह प्रतिमाओं के नाम कहते हैं
मृष्टया मूलगुणाष्टकं व्रतभर सामायिक प्रोषधं, सभिवतात्र दिन व्ययायवनितारं भोपधिम्योपतात् । उच्चिष्टायपि भोजनानाविरति प्राप्ताः मात्प्राग्गुण,
प्रौढ़ाया वर्शनिकायय: सह भवस्येकारशोपासकाः ॥ प्रांत---दर्शन प्रतिमा, अत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषध प्रतिमा, सचित त्याग प्रतिमा, रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, प्रारम्भ त्याग प्रतिमा, परिग्रह विरति प्रतिमा, मनुमति त्याग प्रतिमा और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा इस प्रकार से ग्यारह प्रतिमा हैं । ये ग्यारह प्रतिमाएं क्रमशः उत्तरोतर चढ़ती हुई अनुक्रम से धारण की जाती हैं क्योंकि इस जीव के अनादि काल से अनादि कर्म सम्बन्ध के कारण प्रात्मीक स्वभावों के यथार्थ रूप जाने बिना पंचेन्द्रिय जनित विषय अभ्यास हो रहा है तज्जनित प्रसंयम एक साथ नहीं छूट सकता इसलिए क्रम ऋम से छोड़ने की परिपाटी बतलाई गई है इसलिए ही अगली अगली प्रतिमानों में पहली पहली प्रतिमानों के गुण अवश्य ही रहते हैं और वे उत्तरोतर बढ़ते जाते हैं जैसे अत प्रतिमा में सम्यग्दर्शन और मूलगुणों को उत्कृष्टता रहती है। सामायिक प्रतिमा में सम्यग्दर्शन मूल-गुण और ब्रतों की उत्कृष्टता रहती है इसी प्रकार सब प्रतिमाओं में पहली पहली प्रतिमाओं के गुण अधिकता से रहते हैं। यथोक्तम्
प्रार्या छंद श्रावक पदानि देवरेकादश देशितानि खलु येषु ।
स्वगुणाः पूर्वगुणः सह सन्तिष्ठते कमविता ॥ अर्थ-भगवान ने श्रावक के ११ स्थान कहे हैं। उनमें अपने-अपने स्थान के गुण पहली प्रतिमा के गुणों के साथ-साथ क्रम से बढ़ते हुए रहते हैं। इनमें से तीसरी पांचवी सातवीं मादि उच्च कक्षा धारण करने वाले पहली, दूसरी, चौथी. छठी ग्रादि नीचे की सब कक्षाओं के निरतिधार नियम धारण करने से ही वह उच्च कक्षा धारी कहला सकता है। यदि वह पहली, दूसरी, छठी आनि नीचे की ऋक्षामों में अतिचार लगाए तो उसके पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी प्रादि की प्रतिमा गिनी जाएगी जैसे किसी मनुष्य ने स्व पर स्त्री सेवन प्रादि ब्रह्मचर्य का सर्वथा त्याग तो कर दिया परन्तु सामायिक, प्रोषध आदि प्रतिमा यथा योग्य पालन न करे तो उसे ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारी नहीं कह सकते क्योंकि जिस प्रतिमा में जिस व्रत के पालन या जिस पाप के निराकरण की प्रतिज्ञा ली जाती है उसका निरतिचार पालन करना ही प्रतिमा कहलाती है अन्यथा केवल कौतुक मात्र है उससे कुछ भी फल नहीं होता क्योंकि नीचे के यथावत क्रम पूर्वक चरित्र साधन करने से ही विषय कषाय को मंदता होने से निजात्मीक सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है जो कि प्रतिमाओं के धारण करने का मुख्य प्रयोजन है । इन दर्शन आदि ग्यारह प्रतिमानों के धारियों के गृहस्थ, ब्रह्मचारी, भिक्षुक तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे भेद दिखलाते हैं
पात्रा गृहिणो झया, स्त्रयः स्युबाह्मचारिणः । भिक्षको नौमतु निविष्टो, ततः स्यात्वर्ततोयति ॥