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________________ २३६ णमोकार बंध माता अपने बिछुड़े पुत्रों को पाकर बहुत प्रानन्दित हुई। पुत्रों को गले लगाया और शुभाशी. वर्वाद दिया। सब है.."जैसा स्नेह पत्र पर माता को होता है वैसा किसी का नहीं होता।" उस तुलना किसी दृष्टांत या उदाहरण से नहीं दी जा सकती और जो देते हैं वे माता के प्रानन्द प्रेम को न्यून करने का यत्न करते हैं। तदनंतर रामचन्द्र अपनी प्रजा से प्रेमपूर्वक मिले। सबको बहुत दिन बिछुड़े हुए अपने महाराज के दर्शन कर बड़ा प्रानन्द हुमा । रामचन्द्र राज्य पालन करने लगे। इस खुशी में रामचन्द्र जी ने मित्र, भाई-बधु और विद्याधर प्रादि जितने अपने प्रेम-पात्र थे, उन्हें बहुत पुरस्कार देकर संतुष्ट किया। रामचन्द्र के शासन से प्रजा भी बहुत संतुष्ट रहने लगी। देखो ! रामचन्द्र परस्त्री के पाप से रहित थे, इसलिए उनकी कीर्ति सब दिशाओं में विस्तृत हो गई और रावण इसी पर-स्त्री के पाप से मर कर नरक गया, इसलिए उसकी कीति न हुई ! उसके कुल में सलेक लगा और अंत में दूसरे के हाथ से उसकी मृत्यु हुई। सारांश यह है कि पर-स्त्री सेवन से दोनों लोक बिगड़ते हैं। हजारों वर्षों का उज्ज्वल सुयश एक क्षण-मात्र में नष्ट हो जाता है। शरीर रोगों का घर जीर्ण प्राय हो जाता है और फिर बुरी तरह मृत्यु हो जाती है, इसलिए हे बुद्धिमानो ! पर-स्त्री से संसर्ग करना छोड़ दो। जो पर-स्त्री के त्यागी हैं वे संसार में निभीक हो जाते हैं। उनकी कीर्ति सब जगह फैल जाती है। देखो, यही रावण विखंड का स्वामी था। लंका जैसी पुण्यपुरी इसको राजधानी थी और उसके प्रताप मे बड़े-बड़े राजा-महाराजा डरते थे। आज उसी वीर की केवल पर-स्त्री हरण के पाप से यह दशा हुई सो और साधारण पुरुष इस पर-स्त्री-त्र्यसन से कितना दुःख उठाएंगे, यह अनुभव में नहीं पाता और कुछ नहीं तो पर-स्त्री सेवन करने वालों को इस लोक में धनहानि और शारीरिक कष्ट मौर परलोक में नरक प्रादि कुगतियों के दुःख तो सहने ही पड़ते हैं। इसमें किसी तरह का संदेह नहीं है। वे मनुष्य नहीं हैं किंतु नीच है जो दूसरों की स्त्री से अपनी बुरो वासना पूरी करते हैं। झूठा खाने वाले कुत्ते हैं। भाइयो ! परन्त्री सेवन सर्वथा निद्य है। इसे छोड़कर अपनी स्त्री में संतोष करो। यही धर्मात्मा होने की पहली सीढ़ी है। इसी प्रकार बहुत-सी कथाएँ पर-स्त्री के सम्बन्ध की हैं। इन सबका अभिप्राय केवल इस पाप प्रवृत्ति के छुड़ाने का है । कथा के पढ़ने का यही फल होना चाहिए कि उससे कुछ शिक्षा लो आए । केवल पढ़ना किसी काम का नहीं है । वह तो तोते का सा रटना है। तात्पर्य यह है कि इन पापाचारों से होने वाली हानियों को विचार कर उसके छोड़ने में उद्यमशील बनो। ॥ इति परस्त्री व्यसनम् ॥ ॥ इति पाक्षिक श्रावक वर्णन समाप्तः ॥ मय नैष्ठिक श्रावक वर्णन प्रारम्भ : देशयमनकोपादि, क्षयोपशम भावतः । बासो वर्शनिकास्त, नैष्ठिक: स्यात्सुलेश्यकः॥ अर्थ-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के क्षयोपशम होने से दर्शन प्रतिमा पादि को धारण करने वाला नैष्ठिक श्रावक कहा जाता है। उसके पीत्, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में से कोई लेश्या होती है। भावार्थ:-जो धर्मात्मा पाक्षिक श्रावक की क्रियाओं का साधन करके अर्थात एकदेशसंयम को पालन करने का अभ्यास करके जिन शासन के प्रध्ययन द्वारा संसार शरीर भोगोपभोगों से विरक्त होने रूप वैराग्य वृक्ष को बार-बार सिंचन करता हुमा अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम होने से और प्रत्याख्यानाकरण कषाय के क्षयोपशम के अनुसार निरसियार थावक धर्म का निर्वाह करने में
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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