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________________ णमोकार च मागे कल्पवासी देवांगनाओं की आयु कहते हैं-- सौधर्म द्विक को देवोगनाओं को जघन्य प्रायु साधिक एक पल्य और उत्कृष्ट प्रायु क्रमशः सोलहों स्वर्गों में-पाँच, सात, नव, ग्यारह, तेरह. पन्द्रह, सत्रह, उन्नीस, इक्कीस, तेईस, पच्चीस, सताईस, उनतीस, चौतीस, इकतालीस, अड़तालीस, और पचपन पल्य प्रमाण है। आगे देवों के उच्छवास और पाहार के समय का प्रमाण कहते हैं जहां जिस जिस कल्प म जितने-जितने सागर प्रमाण आयु कही है उतने-उत्तने पक्ष बीतने पर उच्छवास और उतने ही हजार वर्ष बीतने पर मानसिक आहार होता है । जैसे सौधर्म द्विक में प्रायु दो सागर है वहां दो पक्ष के अंतराल से उच्छवास और दो हजार वर्ष के अन्तराल से आहार होता है इसी प्रकार अन्य कल्पों में जानना चाहिए। प्रागे लोकांतिक देवों का वर्णन लिखते हैं जो पांचवें ब्रह्मस्वर्ग के अन्त में रहते हैं वे लोकांतिक देव हैं । ये लोकांन्तिक देव मनुष्य का एक भव धारण करके तद्भव से ही मोक्षगामी होते हैं । इस कारण जिनके लोक का अर्थात् संसार का अन्त होने वाला है उन्हें लोकांतिक देव कहते हैं। ये लोकांतिक देव कुल भेद करके (१) सारस्वत, (२) आदित्य, (३) बन्हि, (४) अरुण, (५) गर्दतोय, (६) तुषित, (७) अवाबाध, और (८) अरिष्ट,ऐसे पाठ प्रकार हैं और क्रमशः संख्या में (१) सात सौ सात, (२) सात सौ सात, (३) सात हजार सात, (४) सात हजार सात, (५) नव हजार नव, (६) नव हजार नव, (७) ग्यारह हजार ग्यारह और (८) ग्यारह हजार ग्यारह हैं। इनमें से सारस्वत ग्रादि सात प्रकार के देव तो ईशान ग्रादि सात दिशा विदिशाओं के प्रकीर्णक विमानों में और अरिष्ट नामक देव उत्तरदिशा के श्रेणीबद्ध विमानों में रहते हैं । इनकी संज्ञा के सदृश ही इनके विमानों के नाम हैं। प्रागे सारस्वत श्रादि अष्टविध देवों के एक-एक अन्तराल में रहने वाले जो सोलह उपकुल हैं उनके नाम और संख्या कहते हैं-सारस्वत प्रादि देवों के अन्तराल में स्थित जो देव हैं वे (१) अग्न्याभ, (२) मूर्याभ, (३) चन्द्राभ, (४) सत्याभ, (५) श्रेयस्कर, (६) क्षेभंकर, (७) वृषभेष्ट, (८) कामघर, (६) निर्माण रजा, (१०) दिगंतरक्षित, (११) यात्मरक्षित, (१२) सर्व रक्षित, (१३) मरुन, (१४) वसु, (१५) अश्व, और (१६) विश्व-ऐसे सोलह प्रकार के हैं और क्रमशः संख्या में (१॥ सात हजार सात, (२) नव हबार नव, (३) ग्यारह हजार. ग्यारह. (४) तेरह हजार तेरह, (५) पन्द्रह हजार पन्द्रह, (६) सत्रह हजार सत्रह, (७) उन्नीस हजार उनीस, (८) इवकीस हजार इक्कीम, (६) तेईस हजार तेईस, (१०) पच्चीस हजार पच्चीस, (११) सत्तईस हजार सत्ताईस, (१२) उनतीस हजार उनतीस, (१३) इकतीस हजार इकतीस, (१४) तेतीस हजार तेतीस, ११५ पैतीस हजार पैतीस, और (१६) मैतीस हजार सैंतीस हैं। इन कुलों के युगल क्रमशः सारस्वत प्रादि देवों के आठ अन्तरालों में रहते हैं जैसे सारस्वत और आदित्य विमानों के बीच अग्न्याभ, सूर्याभ और प्रादित्य तथा वन्हि के बीच चन्द्राम भोर सत्याभ के विमान हैं । इसी प्रकार अन्य अन्तरालों में भी दो-दो कुलों के विमान जानने चाहिए। ये सब लोकान्तिक देव परस्पर होनाधिक्यता रहित (सब समान) विषयों से विरक्त, ब्रह्मचारी, ग्यारह मंग एवं चौदह पूर्व के शाता उदासन और अनित्य प्रादि द्वादश अनुप्रेक्षामों के चितवन में निमग्न रहते हैं। इसी कारण देवों ऋषियों को समान होने से इन्हें ऋषिदेव भी कहते हैं। अवशेष इन्द्र मादि देवों द्वारा पूज्य होते हैं। ये देव दोर्थ कर नगवान के तपकल्याणक के प्रादि में ही पाते हैं। सपकल्याणक के सिवाय अन्य उत्सवों न -1
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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