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णमोकार प्रय
में नहीं आते हैं। इन समस्त ब्रह्मस्वर्ग के अन्त में रहने वाले लोकांतिक देवों का शरीर प्रमाण साढ़े पांच हाथ और प्राय पाठ सागर को होती है। लोकान्तिक देवों में जघन्य आयु नहीं होती है। इतना विशेष है कि प्रारष्ट जाति के देवा को मायु नब सागर प्रमाण है।
इति कल्पातीत देव वर्णनम । इस प्रकार कल्पतीतों का वर्णन करके आगे क्रम प्राप्त सिद्ध क्षेत्र का वर्णन करते हैं
पंचानुत्तर विमानों से बारह योजन ऊपर एक राजू चौड़ी, सात राजू लंबी और पाठ योजन मोटी उज्जवल वर्ण अष्टम ईषत्प्राग्भार नाम की अष्टम पृथ्वो है। उस ईषत्प्राग्भार नाम की अष्टम पृथ्वी मध्य रूपामयि चादी के समान श्वेत) छत्र के आकार को मनुष्य क्षेत्र के समान पैतालीस लाख योजन व्यास वाला सिद्ध क्षेत्र है। उस भूमि की मोटाई मध्य में पाठ योजन है, पर किनारों पर घटतेघटते क्रमशः कम होती गई है।
अथ श्री श्रीपाल परित्र लिख्यते--- इस जम्बुद्वीप के भारत क्षेत्र में अंगदेश के अन्तर्गत चम्पापुर नामक एक मनोहर नगर था। जिस समय को यह कथा है उस समय उसके राजा अरिदमन थे। इनके छोटे भाई का नाम वीरदमन था। अरिदमन धर्मज्ञ, नीतिपरायण, प्रजाहितैषी और जिन भगवान के सच्चे भक्त थे। इसकी रानी का नाम कुन्दप्रभा था। पुष्प के समान उज्जवल गुणों से पूरित, सच्चरित्रा पति भक्ति परायणा और धर्मात्मा थी। राजा का भी इन पर प्रत्यन्त प्रेम था। इस दम्पति के पूर्वोपाजित पुण्योदय से प्राप्त हुई राज्य लक्ष्मी को भोगते हुए परमानद और उत्सब के साथ दिन व्यतीत होते थे । एक दिन कुंदप्रभा अपने शयनागार में कोमल शय्या पर सुखपूर्वक सोई हुए थी कि उसने रात्रि के पश्चिम पहर में पुत्र रल के सूचक सुवर्णमय विशाल पर्वत और कल्पवृक्ष देखे और तत्समय ही स्वर्ग से एक देव चयकर रानी के गर्भ में पाया । स्वप्न देखकर कुन्दप्रभा जाग्रत हो गई।
थोड़े समय में प्रातःकाल हुआ । दिनकर के प्रताप से अंधकार का नाश हो गया जैसे सम्यग्दर्शन के प्रादुर्भत होने पर प्रज्ञानांधकार का नाश हो जाता है। तब वह कोमल तन्त्री सुशोला रानी प्रातः काल सम्बन्धी शरीर आदि की नित्य क्रियाओं से निवृत होकर मंद-मंद गति से पति के समीप गई। राजा ने प्रिया को प्राते हुए देखकर अर्धासन छोड़ दिया । कुन्द प्रभा पति को योग्य विनयपूर्वक नमस्कार करके बैठी और रात्रि में प्राए हुए स्वप्नों को मधुरालाप से कहने लगी । सुनकर राजा ने उनके फल के सम्बन्ध में कहा-प्रिये । ये सब स्नप्न तुमने बहुत ही उत्तम और आनन्ददायक देखे हैं। इनके देखने से सूचित होता है कि तुम्हारे महा तेजस्वी, धीर, वीर, सकल उत्तमोत्तम गुणनिधान और धर्मशरीरी पुत्र रत्न होगा ।-सुवर्णमय विशाल पर्वत का देखना सूचि । करता है कि वह बड़ा पराक्रमी, साहसो, गम्भीर प्रतापी, सबसे प्रधान क्षत्रियवीर तथा सुवर्णसम वर्ण का धारक होगा। कल्पवृक्ष देखने से विचित होता है कि वह बहुत ही उदार चित दीनजन प्रतिपालक, महादानी और धर्म का धारी होगा। तात्पर्य यह है कि तेरे गर्भ से मखिल गुण सम्पन्न भौर तद्भव मोक्षगामो पुत्ररत्न प्रसव होगा।' इस प्रकार अपने पति वारा स्वप्न का फल सुनकर कुन्दप्रभा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। ठीक भी है-'पुत्र प्राप्ति से किसे प्रसन्नता नहीं होती।'
प्रधानन्तर प्राज से ये दोनों (दम्पति) अपना समय जिनपूजन, अभिषेक, पात्रदान प्रादि पुण्य कर्मों में अधिकतर व्यतीत करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार प्रानन्द उत्सव के साथ दस मास बीतने पर कुन्द प्रभा ने शुभ लग्न भौर शुभ दिन में शुभ लक्षणों से युक्त सुन्दर पुत्र रत्न प्रसव किया ।