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________________ णमोकार बर्ष ॐ ह्रीं अहं लोकाध्यक्षाय नमः ।। ६६६।। तीनों लोकों को प्रत्यक्ष देखने से आप लाकाध्यक्ष हैं ।।६६६ ॐ ह्रीं अहं दमेश्वराय नमः ॥७००।इंद्रियदमन करने से तपश्चरण के स्वामी होने के कारण माप दमेश्वर कहलाते हैं ।।७००|| ___ॐ ह्रीं अहं बहद वृहस्पतये नमः ॥७०१॥ इन्द्रों के सबसे बड़े गुरु होने से भाप बृहद् वृहस्पति हैं ॥७०१।। ॐ ह्रीं अहं वाग्म्ये नमः ॥७०२।। विलक्षण वक्ता होने से आप वाग्मी हैं ॥७०२।। ॐ ह्रीं अई वाचस्पतये नमः ।।७०३॥ वाणी के स्वामी होने से वाचस्पति हैं ॥७०३॥ ॐ ह्रीं अहं उदारधिये नमः ॥७०४।। उदार बुद्धि होने से अर्थात् सब को धर्म का उपदेश देने से आप उदारधी हैं ॥७०४॥ ॐ ह्रीं महं मनीषिणे नमः १७०५॥ बुद्धिमान होने से पाप मनीषी है ॥७०५।। ॐ ह्रीं महं धीषणाय नमः ।।७०६।। अपार बुद्धिमान होने से आप धीष्ण हैं ।।७०६॥ ॐ ह्रीं ग्रह धीमते नमः ॥७०७॥ धारण पटु बुद्धि सहित होने कारण धीमान् कहलाते हैं।॥७०७॥ ॐ ह्रीं आई शेमुषीशाय नमः ।।७०८।। बुद्धि के स्वामी होने से आप शेमुशीष हैं ।१७०८।। ॐ ह्रीं अहं गिरांपतये नमः ॥७.६|| सभी भाषाओं के स्वामी होने से आप गिरापति हैं ॥७०६।। *ह्रीं अह नेकरूपाय नमः ॥७१०॥ अनेक रूप होने से आप नेकरूप हैं ।।७१०। *ह्रीं अहं नयोगाय नमः ॥७११॥ नयों का उत्कृष्ट स्वरूप कहने से आप नयोलुन्ग हैं ॥७११॥ ॐ ह्रीं अहं नैकात्मने नमः ।।७१२॥ आप अनेक गुणों को धारण करने से नेकात्मा हैं ।।७१२॥ ॐ ह्रीं अहं नकधर्मकृते नमः ॥७१३॥ पदार्थों को अनेक धर्मरूप कथन करने से पाप नै धर्मकृत हैं ॥७१३॥ ॐ ह्रीं मह अविज्ञय नमः ॥७१४|| साधारण पुरुषों के द्वारा जानने के अयोग्य होने से याप मविज्ञेय हैं ॥७१४॥ ___ॐ ह्रीं अहं अप्रतात्मने नमः ॥७१५।। आपके स्वरूप का कोई तर्कवितर्क नहीं कर सकता इसलिये पाप मप्रतक्यत्मिा हैं ।।७१५३॥ ॐ ह्रीं अहं कृतशाय नमः ॥७१६॥ जीवों के समस्त कृत्य जानने से प्राप कृतज्ञ हैं ॥७१६।। ॐ ह्रीं महं कृत लक्षणाय नमः ।।७१७॥ समस्त शुभ लक्षणों से संयुक्त होने के कारण प्राप कृत लक्षण हैं।७१७॥ ॐ ह्रीं अहं ज्ञानगर्भाय नमः ।।७१८|| अंतरंग में ज्ञान होने से प्राप ज्ञानगर्भ हैं ।।७१८॥ ॐ ह्रीं अर्ह दयागर्भाय नमः ।।७१६|| दयालु होने से प्राप दयागर्भ हैं ।।७१६॥ ॐ ह्रीं अहं रत्नगर्भाय नमः ॥७२०। रत्नत्रयों को धारण करने से अथवा गर्भावस्था ही में रत्नत्रय का स्वरूप जानने से अथवा गर्भावतार होने से पहले ही रत्नों की वर्षा होने से पाप रत्नगर्भ हैं ॥७२०॥ ॐ ह्रीं अहं प्रभास्वराय नमः ।।७२१॥ अतिशय प्रभावशाली होने से आप प्रभास्वर हैं ।।७२१॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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