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णमाकार ग्रंथ
ॐ ह्रीं अहं सत्यपरायणाय नमः ॥६७३|| प्राप सत्यस्वरूप में तत्पर होने से सरयपरायण कहे जाते हैं ।। ६७३॥
ॐ ह्रीं प्रहं स्थेयसे नमः ॥६७४।। अत्यन्त स्थिर होने से आप स्थेयान हैं ॥६७४।। ॐ ह्रीं मह स्थवीयसे नमः ।।६७५|| अतिशय स्थूल होने से पाप स्थवीयान् हैं ।। ६७५॥ ॐ ह्रीं अहं नेदीयसे नमः ॥६७६३ भक्तों के समीप होने से प्राप नेदीयान हैं ।।६७६।। ॐ ह्रीं अर्ह दवीयसे नमः ।।६७७॥ पापों से दूर रहने के कारण आप दवीयान् हैं ॥६७७।।
ॐ ह्रीं अर्ह दूरदर्शनाय नम: ।।६७८|| प्रापके दर्शन दूर ही से होते हैं इसलिये आप दूरदर्शन हैं ।।६७८॥
ॐ ह्रीं पह अणोरणीयसे नमः 11६७६।। परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म होने से आप अणोरणीयान हैं ॥६७६।।
ॐ ह्रों ग्रह अनणुवे नमः ।।६८०॥ सूक्ष्म न होने से पाप अनणु हैं ॥६८०॥
ॐ ह्रीं अहं गरीसयां आद्यगुरवे नमः ।।६८१॥ बड़ों में सबसे बड़े होने से पाप गरीयसां प्राद्य गुरू कहलाते हैं ।।६८॥
ॐ ह्रीं अहं सदा योगाय नमः ॥६८२॥ सदा योग स्वरूप होने से आप सदायोग है ।।६८२॥
ॐ ह्रीं मह सदा भोगाय नमः ॥६८३॥ आप सदा आनन्द के भोक्ता होने से सदा भोग हैं ॥६८३।।
ॐ ह्रीं अहं सदा तृप्ताय नम. ||६८४॥ सदा तृप्त रहने से आप सदा तृप्त हैं ||६५४॥
ॐ ह्रीं अह सदाशिवाय नमः ।।६८५।। सदा कल्याण स्वरूप अथवा मोक्ष स्वरूप रहने से प्राप सदा शिव कहलाते हैं ॥६६५॥
ॐ ह्रीं अहं सदा गतये नमः ।।६८६।। प्राप सदा ज्ञान स्वरूप होने से सदागति हैं ॥६८६॥ ॐ ह्रीं अहं सदा सौख्याय नमः ।।६८७॥ सदा सुख स्वरूप रहने से सदा सौख्य है ।।६८७|| ॐ ह्रीं अहं सदा विद्याय नमः ।।६५८॥ आप सदा ज्ञानस्वरूप रहने से सदा विद्य हैं ॥६८८||
ॐ ह्रीं अर्ह सदोदयाय नमः ॥६८६॥ पाप सदा उदय रूप होने से अर्थात् सदा कल्याण रूप अथवा प्रकाश स्वरूप रहने से आप सदोदय कहलाते हैं ॥६६॥
ॐ ह्रीं अहं सुघोषाय नमः ।।६६०॥ आपका सुन्दर शब्द होने से आप सुघोष हैं ॥६६०।। ॐ ह्रीं अर्ह सुमुखाय नमः ॥६६१।। सुन्दर मुख रहने से आप सुमुख हैं ॥६६१। ॐ ह्रीं अहं सौम्याय नमः ।। ६६२।। शान्त रहने से आप सौम्य हैं ।।६६२॥ ॐ ह्रीं अहं सुखदाय नमः ।।६६३॥ सबको सुख देने से आप सुखद हैं ॥६६३।। ॐ ह्रीं अर्ह सुहिताय नमः ।।६६४।। सबका हित करने से पाप सुहित हैं ।।६६४॥ ॐ ह्रीं अहं सुहृदे नमः ॥६६॥ निष्कपट, शुद्ध, निर्मल होने से आप सुहृत् हैं ।।६६५॥
ॐ ह्रीं अहं सुगुप्तये नमः ॥६६६॥ मिथ्यादृष्टियों द्वारा आपका स्वरूप न जानने से आप सुगुप्त हैं ॥६६६॥
ॐ ह्रीं अहं गुन्तिभृते नमः ॥६९७॥ आप तीनों गुप्तियों को पालन करने से गुप्तिभृत हैं ।। ६६७॥
ॐ ह्रीं अहं गोप्तये नमः ॥६९८॥ पापों से प्रात्मा की रक्षा करने से मथवा जीवों की रक्षा करने से आप गोप्ता हैं ।। ६१८