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________________ णमोकार अंथ पुस्तकों में प्रारोपण किया अर्थात् लिपिबद्ध किया और उसकी ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी की चतुर्विध संघ सहित वेष्टनादि उपकरणों के द्वारा क्रियापूर्वक पूजा की । उसी दिन से यह ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी संसार में 'श्रुतपंचमी' के नाम से प्राख्यात हो गई । इस दिन श्रुत का अवतार हुआ है इसीलिए प्रद्यपर्यन्त समस्त जैनी उक्त तिथि को श्रुतपूजा करते हैं। कुछ दिन के पश्चात् भूतबलि प्राचार्य ने षट्खंड आगम का अध्ययन करके जिनपालित शिष्य को उक्त पुस्तक देकर श्री पुष्पदंत गुरु के समीप भेज दिया । जिनपालित के हाथ षट्खंड प्रागम देखकर और अपना चितवन किया हा कार्य पूर्ण हया जानकर श्री पुष्पदंताचार्य का समस्त शरीर प्रगाढ धुतानुराग में सन्मय हो गया और तब अतिशय प्रानन्दित होकर उन्होंने भी चतुर्विध संघ के साथ श्रुत पंचमी को गंध, अक्षत, माल्य, वस्त्र, वितान, घंटा, ध्वजा आदि द्रव्यों से पूर्ववत् सिद्धान्त अन्य को महापूजा की। इस प्रकार षट्खंडागम की उत्पत्ति का वर्णन करके अब कषाय प्राभृत् सूत्रों की उत्पत्ति का कथन करते हैं-बहुत कठिनता से श्रो घरसेनाचार्य के समय में एक श्री गुणधर नाम के प्राचार्य हुए। उन्हें पांचवें जान प्रवाह पूर्व के दशा परस्तु के तृतीय कषाय प्राभृत् का ज्ञान था। उन्हें भी वर्तमान पुरुषों की शक्ति का विचार करके कषाय प्राभृत पागम को जिसे दोष प्राभृत् भी कहते हैं, एक सौ तिरासी मूलगाथा और तिरेपन विवरण रूप गाथाओं में बनाया । फिर पन्द्रह महाधिकारों में विभाजित करके श्री नागहस्ती और आर्यमंक्षु मुनियों के लिए उसका व्याख्यान किया। पश्चात् उक्त दोनों मुनियों के समीप शास्त्र निपुण श्री यतिवृषभ नामक मुनि ने दोष प्राभृत के उक्त सूत्रों का अध्ययन करके पीछे उनकी सूत्र रूप चूर्ण बृत्ति छह हजार श्लोक प्रमाण बताई । पनन्तर उन सूत्रों का भली-भांति अध्ययन करके धो उच्चारणाचार्य ने बारह हजार श्लोक प्रमाण, उच्चारणाचार्य नाम की टीका बनाई। इस प्रकार से गुणधर, यतिवृषम और उच्चारणाचार्य ने कषाय प्राभृत का गाथा चूणि और उभारण बृत्ति में उपसंहार किया। इस प्रकार से उक्त दोनों कर्म प्राभृत और कषाय प्राभूत सिद्धान्तों का ज्ञान द्रव्य भाव रूप पुस्तकों से (लिखित ताड़पत्र वा कागज बादि की पुस्तकों को द्रव्य पुस्तक और उसके कथन को भाव पुस्तक कहते हैं) और गुरु परम्परा से कंडकुदपुर में ग्रंप परिकर्म (चूलिका सूत्र) के कर्ता श्री पप्रमुनि को प्राप्त हुमा सो उन्होंने भी छह खंडों में से पहले तीन खंडों की बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका रची। कुछ काल बीतने पर श्री श्यामकुंड आचार्य ने सम्पूर्ण दोनों पागमों को पड़कर केवल एक छठे महाबंध खंड को छोड़कर शेष दोनों ही प्राभृतों की बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका बनाई। इन्हीं प्राचार्य ने प्राकृत, संस्कृत और कर्णाटक भाषा की उत्कृष्ट पद्धति (ग्रन्थ परिशिष्ट) की रचना की। कालांतर में ताकिक सूर्य श्री समन्तभन्न स्वामी का उदय हुपा । तब उन्होंने भी दोनों प्राभृतों का मध्ययन करके प्रथम पांच खंडों की अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका अत्यन्त सुन्दर मौर सुकोमल संस्कृत भाषा में बनाई। पीछे उन्होंने द्वितीय सिद्धान्त की व्याख्या लिखनी भी प्रारम्भ की थी परन्तु द्रव्यादि शुद्धिकरण प्रयत्नों के प्रभाव से उनके एक साधर्मी मुनि ने निषेध कर दिया जिससे वह नहीं लिखी गई । इस प्रकार व्याख्यान क्रम (टीकादि) से तथा गुरु परम्परा से उक्त दोनों सिद्धान्तों का बोध अतिशय तीक्ष्ण बुद्धिशाली श्री शुभनंदि पौर विनंदि मुनि को प्राप्त हुमा । ये दोनों महामुनि भीमरपी और कृष्णमेणा नदियों के मध्य में बसे हए रमणीय उत्कलिका ग्राम के समीप समित प्रगणबल्ला ग्राम में उपस्थित थे। उनके समीप रहकर श्री बप्पदेव गुरु ने दोनों सिद्धान्तों का श्रवण किया और फिर तजन्य ज्ञान से उन्होंने महाबंध खंड छोड़कर शेष पाच खंडों पर व्याख्या प्राप्ति नाम
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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