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________________ णमोकार ग्रंथ २३ जगज्ज्येष्ठाय नमः ||३१|| आप जगत के समस्त प्राणियों में वृद्ध हैं अथवा श्रेष्ठ हैं इसलिए श्रापको जगज्ज्येष्ठ कहते हैं ||३१|| ॐ ह्रीं ॐ ह्री विमूर्तये नमः ||३२|| आप अनन्तगुण मय हैं इसलिए प्राप विश्व मूर्ति कहलाते हैं ॥ ३२ ॥ चौथे ॐ ह्रीं श्रीं जिनेश्वराय नमः ||३३|| अनेक कर्मों के नाश करने में गणधर देवों को अथवा 'गुण स्थान से बारहवें गुणस्थान तक रहने वाले जीवों को जिन कहते हैं, आप उनके ईश्वर हैं इस लिए आपको जिनेश्वर कहते हैं ॥ ३३ ॥ विश्वदुवे नमः || ३४ || भाप समस्त लोक को देते हैं इसलिए श्राप विश्वदृक् ॐ ह्रीं कहलाते हैं ||३४|| ॐ ह्रीं यह विश्वभूतेशाय नमः ||३५|| आप समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं और तीन जगत की लक्ष्मी के पति हैं इसलिए आप विश्व भूतेश कहे जाते है ।। ३५ ।। ॐ ह्रीं श्रीं विश्वज्योतिषे नमः ||३६|| श्रापका केवल दर्शन रूपी तेज सब जगह भरा हुआ है तथा आप समस्त जगत में प्रकाश करने वाले हैं। इसलिए विश्वज्योति कहलाते है || ३६॥ ॐ ह्री भई अनीश्वराय नमः ||३७|| आपका कोई ईश्वर या स्वामी नहीं है इसलिए आपको अनीश्वर कहते हैं ||३७| ॐ ह्रीं श्रीं जिनाय नमः || ३८ || आप ने कर्मरूपी शत्रु अथवा काम क्रोध आदि राग द्वेष शत्रु जीते हैं इसलिए आप जिन कहलाते हैं ।। ३८ ।। ॐ ह्रीं जिष्णवे नमः ||३१|| आपका स्वभाव ही सबसे उत्कृष्ट रूप तथा प्रकाश रूप है इसलिए जिष्णु कहे जाते हैं ॥ ३९ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं श्रमेयात्मने नमः ॥ ४० ॥ भ्रापका ज्ञान प्रमाण रहित अनन्त है इसलिए श्राप श्रमेयात्मा कहलाते हैं ||४०|| ॐ ह्रीं यह विश्वरीशायनमः || ४१ || आप विश्वरी अर्थात् पृथ्वी के ईश यानी स्वामी हैं इसलिए विश्वरीश कहलाते हैं ॥४१॥ ॐ ह्रीं श्रहं त्रिजगत्पतये नमः || ४२ ॥ प्राप तीनों लोकों के स्वामी हैं, इसलिए त्रिजगत्पति कहे जाते हैं ||४२|| ॐ ह्रीं श्रहं श्रनन्तजिते नमः ||४३|| श्राप अनन्त संसार को जीतने वाले हैं तथा मोक्ष को रोकने वाले अनन्तनाम के ग्रह को जीतने वाले हैं, इसलिए आप अनन्त जित् कहे जाते हैं ||४३|| ॐ ह्रीं चित्यात्मने नमः || ४४ || आपके आत्मा का स्वरूप मन से भी चित वर्णन नहीं किया जा सकता इसलिए आपको अचित्यात्मा कहते हैं ||४४ || ॐ ह्रीं श्रहं भव्य बांधवे नमः || ४५ || ग्राप भव्य जीवों का सदा उपकार करते हैं इसलिए भव्य बन्धु कहलाते हैं ।। ४५ ।। प्रबंधनाय नमः || ४६ || आपको कर्म का बन्ध नहीं है, अथवा घातिया कर्मों के द्वारा श्राप बंधे हुए नहीं है, इसलिए श्राप अबंधन कहे जाते है || ४६ || ॐ ह्रीं यह युगादि पुरुषाय नमः || ४७ || आप कर्मभूमि के प्रारम्भ में हुए हैं इसलिए युगादि पुरुष कहलाते हैं ॥ ४७ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं ब्रह्मणे नमः || ४८ || आपके यहां केवलज्ञान आदि समस्त गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं इसलिए आप ब्रह्मा कहे जाते हैं ॥ ४८ ॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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