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________________ णमोकार प्रत्थ श्रधःकरण, अपूर्वकरण र प्रनिवृत्तिकरण रूप तीन प्रकार के परिणामों की प्राप्ति का नाम ही करण लब्धि है। इन तीनों करणों में जीव कर्मप्रकृतियों के अनुभाग को उत्तरोत्तर होन करता हुआ अनन्त गुणी विशुद्धि को प्राप्त करता है। अधःकरण और प्रपूर्वकरण के बीत जाने पर जब अनिवृत्तिकरण का भी बहुभाग व्यतीत हो जाता है, तब जीव श्रनिवृतिकरण के काल में अन्तरकरण किया जाता है । इससे प्रथम और द्वितीय स्थिति में परिणाम विशेष के द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल तक मिध्यात्व के उदय को रोक दिया जाता है। इस अन्तरकरण के अंतिम समय में मिथ्यादर्शन को लोन भागों में विभक्त करता है । सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यस्मिथ्यात्व । इन तीनों के साथ अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय का भी प्रभाव हो जाने पर हूर्त काल के लिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है । इतनी विशेषता है कि वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व चारों गतियों में से किसी भी गति में प्राप्त किया जा सकता है । सम्यक्त्व के प्रभिमुख जोव अपूर्वकरण परिणाम द्वारा कोद्रव धान्य के समान मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है। अनुभाग की अपेक्षा उसे सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् मिध्यात्व रूप परिणमन करता है, तथा श्रनिवृत्तिकरण द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शन के भेद १४ सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है- निसर्गज और अधिगमज । जो सम्यग्दर्शन स्वभाव से बिना किसी उपदेश के उत्पन्न होता है वह निसर्गज कहलाता है। थोर जो परोपदेश पूर्वक होता है वह श्रधिगमज है । यद्यपि दोनों का अन्तरंग कारण दर्शन मोह का उपशमादिक है, सो वह दोनों में समान है किन्तु जो अन्तरंग कारण के होते हुए भी बाह्य में सुगुरु के उपदेशादिक निमित्त से होता है वह प्रधिगमज कहा जाता है । श्रपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का है। इनमें श्रपशमिक सम्यक्त्व दो प्रकार है -- प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम प्रथमोपशम सम्यक्त्व का स्वरूप पहले कहा जा चुका है। सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव जब उपशम श्रेणी पर मारूढ़ होने के भिमुख होता है तब वह श्रतानुबंधिचतुष्टय का विसंयोजन करता हुआ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से जिस उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह द्वितीयोपशम कहलाता है । दर्शन मोहनीय के क्षय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह क्षायिक कहलाता है । पट् खंडागम में दर्शन मोहनीय की क्षपणा का विधान इस प्रकार बतलाया है - दर्शन मोहनीय की क्षपणा का प्रारम्भ ढ़ाई द्वीपों में वर्तमान कर्मभूमि का मनुष्य हौ करता है। भढ़ाई द्वीपों में भी जहाँ तीर्थंकर केवली जिन • ( जिन, श्रुतंकेवली, सामान्य केवली या तीर्थकर केवली ) विद्यमान हों, वहां उनके पादमूल में ही वह उसे प्रारम्भ करता है । परन्तु उस क्षपणा की समाप्ति चारों गतियों में होती है । किन्तु उसका प्रारंभ केवल मनुष्यगति में होता है ।" नानुबन्धिचतुष्टय मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उपशम से सदवस्थारूप उपशम से तथा सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाति स्पर्धेकों के उदय से जो तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे क्षायोपशमिक या वेदक सम्यक्त्व कहा जाता है । 3. दंसण मोहणीयं कम्मं खनेदुमाश्वेतु कम्हि प्राइवेदि ? अड्डाहज्जे दीव-समुद्देषु पण्णारस कम्मभूमी त्रिपुरा दुर्भुवि गदी शिद्धबेदि । जम्हिणिा केवली सिरपयरासहि प्रावेदि ॥ - दुखं. पथ० पुस्तक ६ पु. २४३-४७
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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