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णमोकार मंच
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प्रत्येक उत्सपिणी भौर प्रवसपिणी काल की स्थिति पृथक-पृथक दस कोडाकोरी सागर की होती है और दोनों की स्थिति के काल को अर्थात् बीस कोडाकोड़ी सागर के समय को एक कल्प काल कहते हैं अतः जितने प्रनन्तानन्स कल्पकाल व्यतीत हो चुके है उनमें सिवाय इस अवसर्पिणो काल के जो प्रवर्तमान हो रहा है. प्रत्येक उत्सपिणी अवसर्पिणी काल के चौबीसों तीर्थकर इसी पर्वत से मोक्ष गए हैं। दूसरे प्रलय काल के पश्चात और पर्वतों का यह नियम नहीं कि जहां पहले
बने परन्तु श्री सम्मेद शिखर प्रलय काल के पश्चात यहीं बनता है मौर चौबीसों तीर्थकर यहीं से मोक्ष जाते हैं। इस कारण बीस तीर्थकरों के निर्वाण क्षेत्र वत् उक्त अन्य स्थानों में मोक्ष जाने वाले तीर्थकरों की चार टोंक सर्वया पूज्य मौर वंदनीय है। इस सम्मेद शिखर के सिद्धवर कट से श्री अजितनाप, धवलकूट से श्री संभवनाथ, आनन्द कूट से अभिनन्दन, विचल कूट से श्री सुमतिनाथ, मोहन फूट से श्री पद्यप्रभु, प्रभासकट से श्री सुपाश्र्वनाथ, ललितकूट से श्री चन्द्रप्रभु, सुप्रभटकूट से श्री पुष्पदन्त, चुतवर कूर से श्री शीतलनाथ, संकल्पकूट से श्री श्रेयांसनाथ, शालकूट से श्री विमलनाथ, स्वयंभूकूट से श्री पनन्तनाप, सुदनबरकूट से श्री धर्मनाय, शान्तिप्रद कूट से श्री शान्तिनाथ, शानघर कूट से श्री कुषनाथ, नाटककूट से श्री अरहनाथ, शांकूल कूट से श्री मल्लिनाय, निर्जराकूट से श्री मुनिसुव्रतनाथ, मित्रधर कूट से श्री नमिनाथ और सुवर्णभद्र कूट में श्री पार्श्वनाथ भगवान मोक्ष गए हैं।
इति सम्मेद शिखर वर्णनम्
अथ श्री महावीर तीपंकरस्य विवरण प्रारम्भ :श्री पारवनाथ भगवान के निर्वाण होने के पनन्तर दो सौ पचास वर्ष व्यतीत होने पर प्रध्युत नामक सोलहवें स्वर्ग से पपकर भारत वर्ष के सुप्रसिद्ध, मनोहर पौर विशाल कुंडलपुर (यह स्थान मगध देश में पावापुर के समीप कुंडलपुर के नाम से प्रसिद्ध है) के अधिपति राजा सिद्धार्थ की प्रियकारिणी (त्रिशला) रानी के गर्भ से अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान ने जन्म लिया । इनका वंशइक्ष्वाकु । गर्भ तिथि-पाषाढ़ शुक्ल ६ । जन्मतिथि-चैत्र शुक्ल १३ । जन्म नक्षत्र-उत्तरा फाल्गुनि । शरीर का वर्ण-सुवर्णसम । चिल-सिंह । पारीर प्रमाण-साव हाथ । मायु प्रमाण-बहसरवर्ष । समकालीन प्रधान राजा श्रेणिकराय । इन्होंने भी श्रीपाश्र्वनाथ भगवान की तरह तीस वर्ष की मायु में फुमारावस्था में ही जातिस्मरण का कारण पाकर संसार से उदासीन हो मार्गशीर्ष कृष्णादशमी को मपराह्न काल के समय तीन सौ मुकुट बद्ध राजाओं के साथ जिन दीक्षा ले ली । भगवान के गमन समय की पालकी का नाम-चन्द्रप्रभा । कुंडलपुर के मनोहर वन में शालि वृक्ष के नीचे बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर जिन दीक्षा ले ली । दीक्षित हो एक बेला करने के पश्चात कुंडलपुर में नकुलराय के यहाँ प्रथम पारणा किया। तदनन्तर बारह वर्ष घोर तपस्या करके के जुकूटा नाम को नदी के तट पर पैशाख शुक्ला दशमी (१०वीं) को अपरान काल घातिचतुष्टय का प्रभाव करके केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त करली, उनके केवल ज्ञान रूप दिवाकर के उदय होने पर इन्द्र की प्राशा से कुबेर ने बारह कोठों से सुशोभित एक योजन प्रमाण समवशरण (समोशरण) नामक सभा की रचना की, भगवान द्वादश सभामों के मध्य रत्नजरित सुवर्णमय सिंहासन पर चतरागल अधर विराजे: उस महासभा मनुष्य, मुनि, तियच मादि सबका समूह एकत्रित था, तब भी विजगत गुरु वर्धमान भगवान को दिया ध्वनि ६६ दिन तक निःसृत नहीं हुई। यह देखकर जब इन्द्र ने विचार किया, तो उसे विक्षित हुमा कि गणधर देव का प्रभाव ही दिव्यध्वनि न होने का कारण है मतएव गणधर देव की शोध के लिए वह इन्द्र