SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमोकार प्रम धर्मसेन-ये ग्यारह अंग और दस पूर्व के पाठी ग्यारह महात्मा हुए। इतने में १८३ वर्ष का समय व्यतीत हो गया। पश्चात् दो सौ बीस वर्ष में नक्षत्र, जयपाल, पांडु, दुमसेन और कसाचार्य —ये पांच मुनि ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए। पश्चात् एक सौ अठारह वर्ष में सुभद्र, अभयभद्र, जयवाहु और लोहाचार्यये चार मुनीश्वर आचारांग शास्त्र के परम विद्वान हुए। यहां तक अर्थात् श्री वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पीछे तक अंग ज्ञान की प्रवृत्ति रही । तदन्तर काल दोष से वह भी लुप्त हो गई। लोहाचार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीयत्त, शिवदत्त पौर प्रहद्दत्त ये चार पारातीय मुनि अग पूर्व देश के अर्थात् अंग पूर्व ज्ञान के कुछ अंश के शाता हुए और फिर पूर्व देश के पुण्ड्र बर्द्धनपुर में श्री अर्हदबलि मुनि अवतीर्ण हुए जो अंग पूर्व देश के भी एक देश के जानने वाले थे, प्रसारणा, धारणा विशुद्धि प्रादि उत्तम क्रियाओं में निरन्तर तत्पर रहते थे, अष्टांग निमितज्ञान के ज्ञाता थे और मुनि संघ का निग्रह अनुग्रहपूर्वक शासन करने में समर्थ थे। इसके अतिरिक्त वे प्रत्येक पाँच वर्ष के अन्त में सौ योजन क्षेत्र के अन्तर्गत निवाम करने वाले मुनियों के समूह को एकत्र करके युग प्रतिक्रमण कराते थे। एक बार उक्त भगवान अहंदबलि प्राचार्य ने पुन प्रतिमा के समय मुनिजनों के ममूह से पूछा 'क्या सब यति आ गए ।' उत्तर में उन मुनियों ने कहा-भगवन हम सब अपने-अपने संघ सहित मा गये । इस वाक्य में अपने-अपने संघ के प्रति मुनियों की निजत्व वुद्धि (पक्ष बुद्धि) प्रकट होती थी प्रतएव तत्काल ही प्राचार्य भगवान ने निश्चय कर लिया कि इस कलिकाल में मागे यह जैन धर्म भिन्नभिन्न गणों के पक्षपात से ठहर सकेगा, उदासीन भाव से नहीं अर्थात् मागे के मनि अपने अपने संघ का, गण का प्रऔर गच्छ का पक्ष धारण करेंगे। सब को एकरूप समझकर मार्ग की प्रवृति नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार विचार करके उन्होंने जो मुनिगण गुफा में से पाए थे उनमें मेकिसी-किसी की नदि और किसी किसी की वीर संज्ञा रखी, जो अशोक वाट से आये थे उनमें से किसी-किमी की अपराजित और किसी की देव संशा रखी। जो पंचस्तूपों का निवास छोड़कर पाए थे उनमें से किसी को सेन प्रौर किसी-किसी को भद्र बना दिया । जो महाशाल्मली (सैमर) वृक्षों के नीचे से पाए थे उनमें से किसी की गणधर और किसी की गुप्त संशा रखी और जो खंड केशर (बकुल) वृक्षों के नीचे से पाए थे उनमें से किसी की सिंह पीर किसी की चन्द्र संज्ञा रखी। ययात्रोक्तं: प्रायातौ संधि वीरौ प्रगट गिरि गुहा वासतोऽशोक बाटा, देवाश्चान्योपपादिजित इति यति पौसेनभद्राहया च । पंचस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधर वृषभः शाल्मली वृक्षमूला, निर्याती सिंह चंद्रो प्रथित गुणगणो केशराखंड पूर्वात् ।। अनेक प्राचार्यों का ऐसा मत है गुहायां बासितो ज्येष्टो, द्वितीयोऽशोक वाटिकात । निर्यातोनंदि देवाभि, धाना वाधानुक्रमात् ॥ पंचस्तूप्यास्तू सेनाना, वीराणां शाल्मलिद मः। खंड केशर नामाच भद्रः संघस्य सम्मतः ।। मर्ष-गुफा से निकलने वाले नंदि, अशोक वन से निकलने वाले देव, पंचस्तूपों से पाने वाले सेन, भारी शाल्मलि वृक्ष के नीचे निवास करते नाले वीर और खंड केशर वृक्ष के नीचे रहने वाले भद्रसज्ञा से प्रसिद्ध किए गए थे।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy