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________________ णमोकार च राजा ने कहा-"सुन्दरी ! वह राज्य का अपराधी है। वह बंशहीन भांडों का पुत्र होकर भी यहाँ वंश छिपाकर रहा पोर उसने मुझे धोखा दिया इसीलिए उसे अवश्य ही मानी होगी।" तब रयणमंजूषा बोली-"महाराज ! यह एकतर्फी न्याय है। एक तरफी बात वादी के लिए मिश्री से भी मीठी होती है और प्रतिवादि के लिए तीक्ष्ण कटारी होती है । इसीलिए पहले शोध कीजिए और फिर जो न्याय हो कीजिए हम तो न्याय ही चाहती हैं।" राजा से रयणमंजूषा ने कहा- हे नरनाथ ! ये अंगदेश चम्पापुरी के राजामरिदमन के पुत्र हैं और उज्जैन के राजा पदपाल की रूपवती व गुणवती कन्या मैनासुन्दरी को ब्याह कर वहां से चले | मार्ग में बहुत से जनों को वश में करते हुए हसद्वीप में आए और वहां के राजा कनककेतु की पुत्री रयणमंजूषा (मुझ) को परणा । पश्चात् आगे चले सो जहाजों के स्वामी धवल सेट की मुझ पर कुदृष्टि हो गई और उसने छल करके श्रीपाल को समुद्र में गिरा दिया तथा मेरा शील भंग करने का उद्यम किया सो धर्म के प्रभाव से जलदेवी ने आकर उपसर्ग दूर किया और सेठ को बहुत दंड दिया। देवो ने मुझसे कहा था कि 'पुत्री ! शीघ्र ही तेरा स्वामी तुझसे मिलेगा और बड़ा राजा होवेगा सो महाराज । अब तक मेरे प्राण इसी पाशा पर टिके हुए हैं। अब आपके हाथ में बात है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। कृपा करके पति-भिक्षा दे दो।" राजा रयणमंजूषा से यह वृतान्त सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और तत्काल श्रीपान के पास जाकर हाथ जोड़कर विनती करने लगा-"स्वामिन् ! मुझसे भूल हुई। मुझको क्षमा करो। मैं अधम जो बिना विचारे यह कार्य किया। दया कर घर पधारो।" तब श्रीपाल ने कहा-"महाराज ! यह तो जीवों को अनादि काल से कर्म कभी दुःख और कभी मुख दिया करता है। इसमें प्रापका कुछ भी दोष नहीं। सब मेरे ही कर्मों का अपराध है। जैसा किया वसा पाया । अच्छा हुआ कि वे कर्म छूट गए। इसका मुझे कुछ भी हर्ष विषाद नहीं है । जो हुआ सो हुप्रा । तव पतीत हुई बात पर पश्चाताप क्या करना ? हां इतना अवश्य है कि पुरुषों को सदैव प्रत्येक कार्य विचारपूर्वक ही करना चाहिए।" राजा ने लज्जा से सिर नीचा कर लिया और सादर श्रीपाल को गजारूढ़ कर राजमहल में ले पाए । नगर में घर-घर मंगल नाद होने लगा । थोपाल जय महल में पाए तो दोनों स्त्रियों ने पति की वंदना की और परस्पर कशल पूछकर अपना-अपना सव वतान्त कह सुनकर चिन्ता को शांत किया तथा अपना समय फिर प्रानन्द से बिताने लगे। राजा ने सेवकों को भेजकर धवल सेठ को पकड़ बुलवाया सो नौकर उसे मारते-पीटते हुए बड़ी दुर्दशा से राजसभा तक लाए । राजा ने तुरन्त श्रीपाल को बुलवाया और कहा-"देखो इस दुष्ट ने आपको सताया है अतएव अब इसका शिरच्छेद करना चाहिए।" यह सुनकर और सेठ की दशा देखकर श्रीपाल को बड़ा दुःख हुआ। वे राजा से बोले"महाराज ! यह मेरा धर्म पिता है । कृपाकर इसे छोड़ दीजिए । इसने मुझसे जो अवगुण किया वह मुझे गुण हो गया। इनके ही प्रसाद से आपके दर्शन हुए और लाभ पाया । न ये समुद्र में गिराते और न में यहाँ तक पाता और न गुणमाला को व्याहता प्रतएव यह मेरा उसकारी ही है।" राजा ने श्रीपाल के कहने से सेठ और उसके सब साथियों को छोड़ दिया क्षषा पादर पूर्वक पंचामृत भोजन कराकर बहुत शुश्रूषा की। धवल सेट ने लज्जित होकर सिर नीचा कर दिया और श्रीपाल की बहुत स्तुति की। मन ही मन में वह पश्चाताप करने लगा कि हाय मैंने इसको इतना कष्ट दिया पर इसने मुझ पर भलाई ही की। हाय मुझ पापी को कहाँ स्थान मिलेगा-इस प्रकार पश्चाताप
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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