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णमोकार ग्रंथ
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उत्पन्न हो जाता है। पहले तो प्रतिनारायण अर्द्धचक्री होता है । यावत् प्रतिनारायण अर्द्ध चक्रवर्ती रहता है तावत् नारायण प्रर्द्धचक्री नहीं हो सकता । जब संग्राम में वह प्रति नारायण को मारकर चक्ररत्न पर स्वामित्व प्राप्त कर लेता है और उसके साधे हुए तीन खंडो पर अधिकार कर लेता है तब वह अर्द्धचक्री होता है और प्रत्येक चौथे काल में एक ही पदवी के धारक को दूसरी पदवी भी नहीं होती है। यद्यपि श्री शांतिनाथ जी, श्री कुंथनाथ जी और श्री अरहनाथ जी-तीर्थकर पदवी के धारक थे और चक्रवर्ती तथा कामदेव पदवी के धारक भी हुए ऐसे तीन-तीन पदवी के धारक हुए परन्तु यह हंडा अवसपिणी काल के प्रभाव से बहुत सी बातें विपरीत होती हैं जैसे प्रत्येक चौथे काल में चौबीस तीर्थकर नियम से सम्मेद शिखर से ही मोक्ष जाते हैं परन्तु अब के हुंडा अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्री आदिनाथ भगवान कैलाशपर्वत से, श्री नेमिनाथ जो गिरनार पर्वत से, श्री वासुपूज्य जी चंपापुरी से और अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर जी पावापुर से परमधाम मोक्ष सिधारे। अवशेष बीस तीर्थंकर श्री सम्मेद शिखर जी से मोक्ष गए।
दूसरी बात यह है कि सब तीर्थकर चौथे काल में ही उत्पन्न होते हैं परन्तु अब की बार प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी चौथेकाल के चौगान हातह परन्तु अब की बार प्रथम
ऋषभदेव जी चौकाल के चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष और साढ़े आठ महीने पहले ही उत्पन्न हो गए थे और चौथेकाल के तीन वर्ष आठ महीने पहले ही मोक्ष चले गए । यह केवल कालदोप से ही ऐस' मा नहीं नो राय चतुर्थ काल में ही मोक्ष जाते हैं, तृतीय में नहीं।
तीसरे अतुल बल के स्वामी श्री पार्श्वनाथ भगवान को सुरकृत उपसर्ग हुम्रा-यह भी केवल काल का ही प्रभाव है नहीं तो त्रिलोकपूज्य और अतुलबल के स्वामी तीर्थकर भगबान को उपसर्ग कैसा? इत्यादि हुंडा प्रवसपिणी काल के प्रभाव से अनेक प्रतिकूल वार्ता होती हैं। इन्हीं प्रतिकूल वार्तामों की शंका निवारण करने के लिए यति भूधरदास जी पार्श्व पुराण में लिखते हैं
चौपाई अवसर्पिणी उत्सपिणी काल, होय अनन्तानन्त विशाल । भरत तथा ऐवत माहि, रहट घटीवत् आवे जाहिं ।।१॥ जव ए असंख्यात एरमान, दीते जुगम खेत भूथान । तब हंडा प्रवसपिणी एक. परें करें विपरीत अनेक ॥२॥ साकी रीत सुनो भतिवंत, सुखम दुखम काल के अन्त । बरषादिक को कारण पाय, विकलत्रय उपजें बहुंभाय ॥३॥ कलपवृक्ष बिनशें तिहवार, वरतै करम भूमि को व्यौहार । प्रथम जिनेन्द्र प्रथम चक्रेश, ताहि समय होय इह देश ॥४॥ विजय भंग चक्री की होय, थोड़े शिव जाय शिव लोय । चक्रवर्ती विकलप विस्तरै, ब्रह्मवंश की उत्पनि करै ।। पुरुष शलाका चौधे काल, अट्ठावन उपजें गुणमाल । नवम प्रादि सोलह पर्यन्त, सात तीर्थ में धर्म नशंत ॥६॥ ग्यारह रुद्र जनम जहाँ धरें, नौ कलहप्रिय नारद अवतरें। सप्तम ते बीसम गुण वर्ग, परम जिनेश्वर को उपसर्ग १७॥