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________________ जमोकार अन्य इस श्लोक का तात्पर्य भी ऊपर की गाथा के अनुसार है इसीलिए अर्थ नहीं लिखा है। अब पृथक-पृथक अधिकारों का वर्णन करते हैं । प्रथम जीवाधिकार:यथार्थ में जिसके एक चेतना ही प्राण है और व्यवहार से इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास ये चार प्राण लेकर तीनों कालों में जीवन धारण करे वह जीव है । इन प्राणों के दश विशेष भेद हैं यथास्पर्शन, रसना, घाण, चक्ष और श्रोत्र ये पांच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय तीन बल, और पा श्वासोच्छवास इन दश प्राणों से ही यह जीव अनादिकाल से जीता है। प्रत्येक जीव के कम से कम चार प्राण और अधिक से अधिक दश प्राण होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के चार प्राण अर्थात् स्पर्श, इन्द्रिय, शरीर का बल, आयु और श्वासोच्छवास होते हैं ! दो इन्द्रिय जीवों के पूर्वोक्त चार प्राणों से रसना इन्द्रिय और बल, ये दो प्राण अधिक होते हैं अर्थात् उनके छः प्राण होते हैं । तीन इन्द्रिय वाले जीवों के पूर्वोक्त छः प्राण और एक प्राण इन्द्रिय ये सात प्राण होते हैं । चार इन्द्रिय वाले जीवों के पूर्वोक्त सात प्राण और एक चक्षु इन्द्रिय ये पाठ प्राण और श्रोत्र इन्द्रिय ये नव प्राण होते हैं। इन्हें मनबल रहित होने से प्रसनी पंचेन्द्रिय कहते हैं और जिनके पूर्वोक्त नव प्राण मन बल सहित हों अर्थात् समस्त दश प्राण हो उन्हें सैमी पंचेन्द्रिय कहते हैं। द्वितीय उपयोग अधिकार का वर्णन निश्चय नय शुद्ध चैतन्य भाव ही जीव का लक्षण है और व्यवहार नय से चार प्रकार का दर्शन, प्रवधि और पाठ प्रकार सामान जीव का लक्षण है। बार बार के दर्शन से हैं-चक्षदर्शन, अपक्ष दर्शन, प्रबधि दर्शन और केवल दर्शन । सुमति, सुश्रुति, कुमति, कुश्रुति, सुअवधि, कुअवधि, मन: पर्यय भौर केवल ज्ञान ये साठ प्रकार का ज्ञान है नेत्र इन्द्रिय से सामान्य रूप से देखता चक्षु दर्शन है। नेत्र इन्द्रिय बिना धार इन्द्रिय और मन से द्रव्य की समान रूप में देखना अचक्षु दर्शन है पंचेन्द्रिय और मन की सहायता बिना मूत्तिक पदार्थ का सामान्य रूप से प्रत्यक्ष देखना अवधि दर्शन है ।समस्त मूर्तिक प्रमतिक पदार्थों को केवल ज्ञान से सामान्य रूप से प्रत्यक्ष देखना केवल दर्शन है। पाँचों इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थ को जानना मतिज्ञान है। मतिज्ञान पूर्वक जाने हुए पदार्थ से सम्बन्धित अन्य पदार्थों का जानना श्रुत्रज्ञान है। पंचेन्द्रिय और मन की सहायता बिना मूर्तिक पदार्थ को एक देश प्रत्यक्ष जानना अवधिज्ञान है। मति, श्रुति और अवधि ये तीनों ज्ञान मिथ्यादृष्टि के जब होते हैं तब कुमति, कुश्रुति कुअवधि कहलाते हैं । सम्यग्दृष्टि के मति, श्रुति,प्रवधि कहलाते हैं । किसी जीव के मन में चितवन किए हुए पदार्थ को जानना प्रत्यक्ष मनः पर्ययज्ञान है। यह शान सम्यग्दृ- मनुष्य के ही हो सकता है अन्य किसी के नहीं। ___समस्त मूर्तिक, प्रमूर्तिक द्रव्य गुण पर्याय को प्रत्यक्ष जानना केवलशान है ऐसा केवलज्ञान सबसे बड़ा है। तृतीय प्रमूर्तिक अधिकार निश्चयनय से जीव स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण इन चार गुणों से रहित होने से पामूर्तिक है । परन्तु म्यवहारनय से कर्मबंध (शरीरादि) से सहित होने के कारण जीव मूर्तिक भी कहा जाता है।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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