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________________ नमोकार ग्रंथ चतुर्थ कर्ता अधिकार व्यवहार से जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों का तथा प्रायु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन चार अधातिया-ऐसे पाठ कर्मों का कर्ता है और प्रशुद्ध निश्चयनय ये अशुद्ध चेतन परिणाम रागादिक भावकों का कर्ता है और शुद्ध निश्चयनय से अपने शुद्ध चैतन्य भावों का अर्थात् शुक्रज्ञान व दर्शन का ही कर्ता है। पांचवा भोक्ता अधिकार व्यवहारनय से यह जीव अपने शुभाशुभ परिणामों द्वारा बाँधे हुए ज्ञानवरणादिक पौद्गलिक कर्मों के सुख दुःख स्वरूप फल का भोक्ता है और अशुद्ध निश्चयनय से विषय, कषाय, दया, समता आदि अपने भावों का भोक्ता है और गुट विजयनय में लाने गुरु गोमाय मावों का ही मोक्ता है छठा स्ववेहपरिमाणत्व अधिकार शुद्ध निश्चयनय तो प्रत्येक जीव लोक के बराबर असंख्यात् प्रदेश वाला है। अर्थात् लोकाकाश के प्रदेश जितनी संख्या में हैं उतने ही प्रदेक प्रत्येक जीव के हैं परन्तु व्यवहारय से नाम कर्म के उदय से जैसा कोटा-जडा वन्द शरीर धारण करता है उसी के आकार के उसके प्रात्म प्रदेश संकोच विस्तार कर हो जाते हैं। जैसे दीपक का प्रकाश जब मकान छोटा होता है तो भी सारे मकान में फैला हुमा होता है और यदि उस ही दीपक को बड़े मकान में रख दिया जाये तो भी सारे मकान में प्रकाश विस्तृत हो जाता है उसी प्रकार यह हाथी के शरीर में जाता है तो हाथी के शरीर का प्रमाण हो जाता है और वही जीव जव किसी छोटी वस्तु का शरीर धारण करता है तो संकुचित होकर उतना ही छोटा हो जाता है । इसी प्रकार बालक की देह में जीव बालक के शरीर के बराबर होता है और ज्यों-ज्यों शरीर बढ़ता जाता है त्यों-त्यों जीव भी विस्तृत हो जाता है परन्तु केवल समुद्घात प्रवस्था में प्रात्मप्रदेश शरीर के बाहर निकलते है। कषाय यादि सात कारणों के उपस्थित होने पर मूल शरीर को न छोड़कर प्रात्म प्रदेश के बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं । वे सात हैं (१) कषाय (२) वेदना (३) मरणांतिक (४) प्राहारक (५) वैक्रियिक (६) तेजस (७) कार्माण । जहाँ असह्य पीड़ा में जीव प्रदेश घबराहट से निकले और पौषधि स्पर्श कर फिर शरीर में आवें सो वेदना समुद्घात है। जहाँ किसी शत्रु के मारने से क्रोधवश जीव प्रदेश सर्व पोर को देह से बाहर निकलें सो कषाय समुद्घात है। मरण समय प्रात्म प्रदेशों का शरीर के बाहर एक ही दिशा को निकलना सो मरणांतिक समुद्घात है। जब मुनि को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न होता है तब जो प्रमत्त गुणस्थानवर्ती ऋद्धिधारी महामुनि के दशम द्वार (मस्तक) से एक हाथ प्रमाण वाले रसादिक धातु और संहनन से रहित समचतुरस्त्रसंस्थान संयुक्त चन्द्रकांति के समान श्वेत पुतलाकार प्रात्मप्रदेश निकल जहां केवल ज्ञान के घारी स्थित हों वहाँ जाकर पदार्थ का निश्चयकर पन्तमुहूर्त में उलटा आकर शरीर में प्रवेश करताहे और वह एक ही ओर निकलता है वह आहारक समुद्घात है। देव नारकी व मनुष्यों के आत्म प्रदेश कारण से विक्रिया करने को अपने अंग से प्रात्म प्रदेशों का बाहर निकलना वैक्रियिक समुद्धात है। मुनि के द्वारा जब दुष्टों द्वारा हुमा अनिष्ट, उपद्रव मादि देखकर क्रोध सहा न जावे तब पायें कन्धे से मारम प्रदेश रक्तवर्ण पुतलाकर निकल मुनि मे जिस बात को घनिष्ट समझा था उस
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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