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________________ Eo श्लोक -- मंदिराणामधिष्ठानं तरूणां सुबुद्ध जड़म् । यथा मूलं व्रतादीनां सम्यक्त्वमुदितं तथा ॥ अर्थ -- जिस तरह मकानों की नींव जब तक दृढ़ न हो तब तक मकान चिरकाल पर्यन्त नहीं ठहर सकता तथा वृक्षों के सुदृढ़ रहने का भूल कारण जड़ है उसी तरह कितने भी व्रत नियमादि धारण किए जाएं पर जब तक सम्यकस्व न होगा तब तक वे ग्रंक के बिना शून्य ( बिन्दी ) लिखने वत् निष्फल हैं । ग्रतएव व्रतादिकों का मूल कारण सम्यकत्व को समझ कर प्रथम उसी के धारण करने में प्रयत्नशील होना चाहिए | इसी कारण प्राचार्यों ने कहा है- 'सम्मं धम्मं मूलो' । प्रर्थात् सम्यकत्व धर्म की जड़ है जिसके प्रभाव से सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को द्रव्यलिंगी मुति से भी श्रेष्ठ कहा है क्योंकि यद्यपि द्रव्यलिंगी मुनि व्रतादि धारण करता है तथापि सम्यकत्व रहित होने से मोक्षमार्गी नहीं और गृहस्थ चरित्र रहित है तो भी सम्यकत्व महित होने से मोक्षमार्गी कहा है। है सम्यग्दर्शन प्रकरण : सम्यग्दर्शन स्वरूप - जीवादी सद्दहणं सम्मत्त रूपमप्पणो तं तु बुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्मं खु हो दि सदि जहि ॥ - जीवादिक तत्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है वह आत्मा का स्वरूप अर्थात् आत्मा का खास स्वभाव है और उसके होने पर ज्ञान दुरभिनिवेश रहित होकर सम्यग्ज्ञान रूप हो जाता है जिस का श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन होता है। rater वह तत्व क्या वस्तु है ? अपने स्वभाव को छोड़कर पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करना और सदा निज स्वभाव में रहना तत्व है और वह तत्व जीव, अजीव, ग्रास्त्रव, बंध, सवर, निर्जरा और मोक्ष सात होते हैं | इनका संक्षिप्त स्वरूप कहा जाता है । प्रथम जीव तत्व वर्णन जीव शब्द के कहने से निश्चयरूप से उस वस्तु से प्रयोजन है जो ज्ञान, दर्शन (देखना, जानता ) लक्षण से संयुक्त असंख्यात प्रदेशी है क्योंकि ज्ञान रूपी गुण जीव के ही पास है अन्य किसी के पास नहीं । जिस वस्तु से जीव नहीं होता है उसे जड़ कहते हैं। जड़ में देखने व जानने की शक्ति नहीं होती, यह शक्ति जीव के ही पास है । जीव त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य पर्यायों को जानने में समर्थ है तथापि मनादि काल से द्रव्य कर्म के संयोग से राग, द्वेष वश परिणमन करता हुआ विभावरूप हो रहा है इसलिए इस में स्वभाव, विभाव रूप से नौ प्रकार की परिणति पाई जाने के कारण श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्य ने इसका नौ प्रकार से वर्णन किया है। वे नव अधिकार इस प्रकार हैं:गाथा --- जीवो जो गम श्रमुत्तिकत्ता सर्वपरिमाणो । भोला संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससरेड्डगई ॥ अर्थ - जीवत्व, उपयोगत्व प्रमूत्तित्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, सदेह परिमाणत्व, संसारत्व, सिद्धत्व मौर उवंगतित्व — इस प्रकार जीव के ज्ञान कराने वाले नव अधिकार हैं । महापुराण का श्लोक प्रस प्रकार है चेतना लक्षणो जीवः सोऽनादिनिधनः स्थितिः । माता वृष्टा च कर्त्ता च भोक्ता बेह प्रमाणकः ॥1 गुणवाकर्म मिता मूर्ध्ववज्यास्याभावकः परितोपसंहारः विसर्पाभ्यां प्रवीपवत् ॥ २४/६२-६३
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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