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णमोकार पंथ
जहाजों को तैयार देखकर श्रीपाल जी ने पंच परमेष्ठी का जापकर सिद्धच का पाराधन किया और पांव के अंगूठे से ज्यों ही जहाजों को स्पर्श किया त्योंही सय जहाज चल पड़े मत्र लोगों में जय-जयकार होने लगा। बहुत खुशी मनाई गई। सब लोग थोपाल जो के साहस, रूप, बल व पुरुषार्थ की प्रशंसा करने लगे और सबने उनको अपने साथ ले जाने का विचार कर प्रार्थना की कि -"ह स्वामिन् ! यदिग्राप हम लोगों पर अनुग्रह कर साथ चलें तो हमारी यात्रा सफल हो।"
तब श्रीपाल जी ने कहा- "सेठ जी! यदि आप अपनी कमाई का दसवाँ भाग मुझे देना स्वीकार करें तो निसंशय चलू ।" सेठ ने यह बात स्वीकार की और श्रीपाल जो ने धवल सेट के साथ जहाजों पर सवार होकर प्रस्थान किया। जव समुद्र में धवल सेठ के जहाज चले जा रहे थे कि इतने म एकाएक मरजिया (जहाज के ऊपर सिरे पर बैठकर दूर तक देखने वाला) एकदम चिल्लाकर बोला"वीरो! सावधान हो जाओ । अव असावधान रहना उचित नहीं है। देखो सामने से एक बड़ा भारी तस्करों का समूह चला आ रहा है ।" ये सुनते ही सब सामन्न लोग हथियार कर सामने पाये। इतने में लुटेरों का दल भी सामने आ गया और उन सबने मिलकर सेठ के जहाजों पर आक्रमण किया । परन्तु सेठ के शूरबीरों ने उन्हें कृतकृत्य न होने दिया और उल्टा मार भगाया। अपने को निर्विघ्न हुया जान सेठ के दल में आनन्द ध्वनि होने लगी। परन्तु इतने ही से इस आपत्ति का अन्त नहीं हुआ था। वे डाकू लोग कुछ दूर तक जा कर एकत्र हुए और सबने सहमत होकर यह निश्चय किया कि एक बार और धाबा करना चाहिए।
बस फिर उन लोगों ने पुन: प्राकर उनके रंग में भंग डाल दिया और इस जोर से अाक्रमण किया कि सेठ के सामन्तों की बात ही बात में पराजय कर धवल सेठ को जीते जो ही बोध कर ले गये। तब सेठ के दल में बड़ा भारी कोलाहल मच गया। यहां तक श्रोपाल जी सब घटना चुपचाप बैठे देखते रहे । सो ठीक ही है-धीर-बीर पुरुष क्षुद्र पुरुषों पर क्रोध नहीं करते, चाहे वे कितना ही उपद्रव क्यों न करे । जैसे मदोन्मत्त हाथी अपने पर सहस्त्रों मविख्या भिनभिनाती हुई देखकर भी क्रोध नहीं करता है क्योंकि यह समझता है कि मैं इन दीनों पर क्या क्रोध करूं'। एक जरा मेरे कान हिलाने मात्र से ये दिशा विदिशामों की शरण लेने लगेंगी अर्थात सब भाग जायगी।' निदान श्रीपाल को तस्करों के शारा धवल सेठ को बांध कर ले जाते हुए देखना सहन नहीं हुआ। उठकर खड़े हुए कि इतने ही में सेठ के प्रादमी रुदन करते हुए पाये और करणाजनक स्वर में बोले-"स्वामिन् । बचासो देखो सेठ को डाक लोग बाँधे लिए जा रहे हैं।" सो एक तो वैसे ही श्रीपाल जी को क्रोध उत्पन्न हो गया था फिर दोनों की दोन वाणीने मानों अग्नि में घी छोड़ दिया हो। इस तरह वह क्रोध और भी जोर पकड़ गया । वे वोले - "हे वीरो ! बर्य रखो। चिन्ता न करो मैं देखता हूं चोरों में कितना बल है ? बात की बात में सेठ को छुड़ाकर लाता हूं।"
श्रीपाल जी के वचनों से सबको सन्तोष हुआ सौर श्रीपाल जी तुरन्त ही शस्त्र धारण कर चोरों को सामने जाकर ललकारा-"हे नीचो ! क्या तुम मेरे सामने सेठ को ले जा सकते हो ? कायरो ! खड़े रहो या तो सेठ को छोड़ कर क्षमा मांगो नहीं तो तुम अपना वध ही जानों।" श्रीपाल की यह सिंह गर्जना सुनकर ये डाकू मृगदल के समान तितर-बितर हो गए तथा किसी प्रकार अपना बचाव न देखकर थरपर कांपने लगे। निदान यह सोचकर कि यदि मरना होगा तो इन्हीं के हाथ से मरेगें, अब तो इनकी शरण लेना ही श्रेष्ठ है। यदि इन्हें क्या प्रा गई तो बच हो जायगे और जो भागेंगे