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णमोकार ग्रंप
सूर्पनखा बोली-" प्राणनाथ ! मैं क्या कह | प्रपनी दुखी दशा को मैं ही जानती हूं।"
इतना कहकर वह रो पड़ी और छाती कूटने लगी। तब खरदूषण ने उसे बहुत दिलासा दिया और इस प्राकस्मिक दःख का कारण पछा तब सर्वनला ने धैर्य धारण कर कहा-प्राण वन में दो मनुष्य और एक स्त्री ठहरे हुये हैं । उन्होंने मेरे प्राणों से प्यारे पुत्र को मार डाला और जब मैंने प्यारे पुत्र को यह दशा देखी तो मेरा साहस जाता रहा और मैं पुत्र के मस्तक को गोद में रख कर रो रही थी कि इतने में उन पापियों में से एक ने पाकर मुझसे अपनी बुरी वासना प्रकट की। मैंने उसको बहुत धिक्कारा, पर फिर भी उसने मुझसे बलात्कार करना चाहा तब मैं बड़ी कठिनता से आपके पुण्य के प्रसाद से अपने सती धर्म की रक्षा कर आपके पास पा सकी हूँ। मैं अपना बड़ा ही पुण्योदय समझती हूं जो आज उन पापियों के पंजे में पाए हुए भी मेरा धर्म सुरक्षित रह सका। प्राणनाय ! बड़े खेद की बात है कि प्रापके उपस्थित होते हुए भी नीच छुद्र पुरुषों के द्वारा पुत्र का मरण और मेरी ये दशा हो । मुझसे इन रंको द्वारा कृत अपमान नहीं सहा जाता। ऐसे जीवन से तो मरना हजार गुना अच्छा है । मुझे संतोष तो तभी होगा जब मैं उन दुष्टों के मस्तक को ठोकरों से ठुकराते हुए देखूगी।"
सुनकर उत्तर में खरदूषण ने कहा-"प्रिये ! तुम अब इस चिंता को छोड़ो और महल में जाकर बैठो मैं अभी उनको इस दुष्कृत का परिणाम दिखा देता हूं। इस प्रकार प्रिया को तो धीरज बंधाकर महल में भेज दिया और पाप संग्राम के लिए तत्पर हो गया और एक दूत के द्वारा ये सब वृतांत रावण के पास भी कहला भेजा । उधर लक्ष्मण भी राम के पास पहुंचे। राम ने लक्ष्मण से कहा"लक्ष्मण ! तुमने जाना कि ये बालिका का रूप बनाये कौन थी ? मैं तो जहाँ तक समझता हूँ ये कोई राक्षसी थी।"
इस प्रकार दोनों भाई परस्पर वार्तालाप कर ही रहे थे कि इतने में खरदूषण प्रचुर सेना सहित युद्ध के लिए भाता हुमा दिखाई पड़ा । प्रस्कमात ही इतना भारी समारंभ देखकर सीता बहुत डरी और राम की गोद में जा गिरी। रामचन्द्र जी ने भी जब दृष्टि उठाकर देखा तो उन्हें भी कुछ सन्देह हुमा।
मोर संकेत करके लक्ष्मण से कहा-“भाई! ये लोग जो पा रहे हैं. वे छली मालम होते हैं । अतएव अब असावधान रहना उचित नहीं ।
यह सुन कर लक्ष्मण ने कहा- "स्वामी, पाप किसी प्रकार की चिंता न करें मैं इनको प्रभी इस कार्य का फल दिखाए देता हूँ। आप यहीं स्थित रहें क्योंकि सीता को ऐसी जगह अकेली छोड़ना उचित नहीं है। एक और प्रर्थना है कि जब तक मैं वापिस नहीं माऊँ तब तक माप यहीं रहें। कोई मापत्ति पामे पर मैं सिंहनाद करूंगा तब पाप प्राकर मेरी सहायता करना।'
___ यह कह कर लक्ष्मण धनुष-बाण ले युद्ध भूमि की ओर चल दिये। मुख भूमि में पहुंचते ही लक्ष्मण ने विद्याधरों की प्रोर दृष्टि उठाकर उन्हें ललकारा-"हे विद्याधरो ठहरो, कहां जाते हो? यदि कुछ वीरता रखते हो तो मुझे उसका परिचय दो।"
लक्ष्मण का इसना कहना था कि ये सब चारों प्रोर से इसके ऊपर आक्रमण करने लगे और वाणों की वर्षा करने लगे। यद्यपि ये अकेले ही थे तथापि इनकी कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सके। लक्ष्मण ने उग में प्राकर ऐसे जोर से बाण चलाए कि उन पर चक्र के पाने वाले बाणों को काटते हुए हजारों योद्धा धाराशायी हो गये । उस सेना में विराधित नाम का एक विद्याधर भी था। उसने लक्ष्मण के इस अलौकिक पराक्रम को देखकर मन में विचारा कि.खरदूषण मेरे पिता का वध कर्ता मेरा शत्रु है। उस समय तो मुझे शक्ति और सहायताहीन होने से शत्रु की ही सेवा करनी पड़ी थी, परन्तु अब सुयोग्य