SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ णमोकार ग्रंथ जिस जिस प्रकार से जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं उस उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान से पूर्व सम्यक् विशेषण विमोह (अनध्यवसाय ) संशय और विपर्यय ज्ञानों का निराकरण करने के लिये दिया है। सम्यग्दर्शन से पहिले जो ज्ञान होता है वह मिथ्याज्ञान कहलाता है। यद्यपि दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं । उसी प्रकार श्रात्मा में जिस समय दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने पर सम्यग्दर्शन रूप पर्याय की अभिव्यक्ति होती है। उसी समय उसके मत्वज्ञान, श्रुताशान का निराकरण होकर मतिज्ञान श्रुतज्ञान प्रकट होते हैं। प्रतएव ज्ञान की समीचीनता का कारण सम्यग्दर्शन है। उसके बिना मिथ्याज्ञान कहलाता है । पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होने पर केवल अज्ञान से ही छुटकारा नहीं मिलता, प्रत्युत श्रात्मा अपने स्वरूप का ज्ञायक भी हो जाता है। ज्ञान का कार्य स्वरूप का बोध कराना है। विवेक ज्ञान के जागृत होते ही उसकी रुचि परपदार्थ से कम हो जाती है और आत्मा ज्ञान और वैराग्य की ओर अग्रसर होने लगता है । संसार के कारणों के प्रति उसका अनुराग कम हो जाता है, उसे हेय उपादेय का यथार्थं बोध हो जाता है, वह हैय का परित्याग करने और उपादेय को ग्रहण करने का प्रयत्न करने लगता है। उसका विवेक ज्ञान उसे विषय में प्रवृत्त नहीं होने देता। और वह भेद विज्ञानी हुआ कर्मबन्धन को कड़ियों को काटने के लिये कटिबद्ध हो जाता है । धन, समाज, हाथी, घोड़ा, राजवैभव और कुटुम्ब परिवार आदि से उसे मोह नहीं होता, क्योंकि वह उन्हें आत्मा से भिन्न पर पदार्थ मानता है। उसकी दृष्टि स्वरूप साधिका होती है । वह भेद विज्ञान को परम हितकारी मानता है और उसके प्रशान्तरस में वह इतना संलग्न हो जाता है कि उसकी दृष्टि सांसारिक कार्यों की ओर नहीं जाती । इन्द्रिय विषयों में भी उसकी प्रवृत्ति नहीं होती । यदि कदाचित् उनमें प्रवृत्ति हो भी जाय तो उसे वेदना का इलाज मात्र मानता है, वह उनमें आसक्त नहीं होता, क्योंकि उसके ज्ञान और वैराग्य की झलक होती है वह उन्हें कर्मोदय का विकार मात्र समझना है। अतएव वह शीघ्र ही अपने स्वरूप की ओर दृष्टिपात करने के लिए तत्पर हो जाता है। जो वस्तु पहृत हो जाती है, नष्ट हो जाती है, छिपा ली जाती है अथवा गिर जाती है, उसे याद कर वह कभी दिलगीर नहीं होता और न विभूति के समागम से हर्षित ही होता है। आगामी काल को उसे कभी चिन्ता नहीं होती । वह वर्तमान में विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करना अपना कर्तव्य मानता है। बुद्धिपूर्वक सो वह रागादि में प्रवृत्ति नहीं करता। यदि उनमें कदाचित प्रवृत्ति हो जाय तो वह गर्हा, निन्दा, मालोचना यदि द्वारा उसका प्रतिकार करने का प्रयत्न करता है, और भविष्य में ऐसी प्रवृत्ति न हो, इसके लिये यह सावधानी रखता है, क्योंकि कथायों की मन्दता और विवेकशान की जागृति उसे निरन्तर श्रात्मनिरीक्षण करने के लिये प्रेरित करती रहती है । श्रतएव वह सदा सावधान रहता है। सम्यग्ज्ञान के सिवाय उसे कोई दूसरा पदार्थ हितकारी नहीं प्रतीत होता । यद्यपि कषाय का for प्रत्मघाति है, और संसार वर्धक है, इसीलिए ज्ञानी उनमें प्रवृति करने से कतराता रहता है। उसकी दृष्टि में ज्ञान मूल्य पदार्थ है जो उसे निरन्तर श्रात्महित में प्रवृत्ति करने की निर्भत्र दृष्टि देता है और विवेक उसे ज्ञान में प्रवृत्त नहीं होने देता । ज्ञान ही परमामृत है वह जन्म जरा और मरणरूप रोगों का विनाश करता है। जिनने संसार का अन्त कर सिद्ध पद प्राप्त किया है। यह सब भेद विज्ञान की महिमा है और जो भागे शिवपद प्राप्त करेंगे वह सब भेद विज्ञान से ही प्राप्त करेंगे। इससे सम्यग्ज्ञान की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। अज्ञानी जीव के करोड़ों वर्ष तपश्चरण करने पर जितने कर्म झड़ते हैं उतने कर्म सम्यग्ज्ञानी के मन, वचन, काय की त्रिगुप्ति से क्षणमात्र में सहज ही दूर हो जाते हैं । अतएव सम्यग्ज्ञान उपादेय है ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy