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________________ १८ णमोकार ग्रंथ मोहरूपी अंधकार के नष्ट होने पर सम्यग्दर्शन के लाभ से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो गई है ऐसे सम्यग्दृष्टि पुरुष को चारित्र धारण करना चाहिए। पाप से निवृत्ति और पात्मस्वरूप में प्रवृत्ति का. नाम सम्यक् चारित्र है। वह दो प्रकार है। निश्चय चारित्र और व्यवहार चारित्र। संसार के पर पदार्थों से रागद्वेष रूप प्रवृति का परित्याग कर प्रारमा के शुद्ध स्वरूप में लीन होना निश्चय सम्यक्चारित्र हिंसा, झूठ, चोरी, और परिग्रह कुशील । पंच पापों का और इनके साधक कारणों का त्याग करना व्यवहार सम्यक्चरित्र है सम्यग्दर्शन से पहले जो चारित्र होता है वह सब मिथ्या है । व्यवहार चारित्र के पालन से निश्चय चारित्र की प्राप्ति होती है। साधक की प्रथम अवस्था में निश्चय साध्य और व्यवहार साधक है। प्रात्म स्वरूप में स्थित का नामनिश्चय चारित्र है, चारित्र की पूर्णता से मुक्ति होती है । चारित्र की बड़ी महत्ता है । इस चारित्र के प्रभाव से जाति विरोधी जीव भी अपना बर-विरोध छोड़ देते हैं। इन्द्रादिक पूजा करते हैं। चारित्र के प्रभाव से ही सौधर्मादिक स्त्रों में इन्द्र पद प्राप्त करते हैं और वहां से च्युत होकर चक्रवर्ती की विभूति प्राप्त करते और दीक्षित होकर तपश्चरण द्वारा कर्म-काष्ठ को जलाकर केवल ज्ञान प्राप्त करते हैं पश्चात अघाति कर्मनाश कर अविचल अविनाशी सुख प्राप्त करते हैं। ऐसा चारित्र रूपी रत्न जीवों के चित्त में निरन्तर प्रकाश करे. जैसाकि निम्न पद्य से प्रकट है घेनान्योन्य-विरोध-वेरि-विस्टजा शकादि पूजाकृता, सोधर्माधिप चक्रपूर्वक पर्व श्रीमुक्ति शर्मामृतम् । पायं पाप मापदरमाचलं भव्याधियं प्राप्यते। तदच्चारू-चरित्र-रत्नमनिशंश्योतिता चेतसि ॥६॥ चारित्र के दो भेद हैं - सकलचारित्र और विकलचारित्र । सकलचारित्र के धारक मुनि होते है, और विकलचारित्र गृहस्थों के होता है। जो जीव अन्तर्वाह्य परिग्रह का त्याग कर जिनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करते और अहिंसादि २८ भूनगुणों का निर्दोष रूप से पालन करते हुए पंच महाव्रत, पंच समिति और तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करते हैं, और अनशनादि द्वादश तपश्चरणों द्वारा प्रात्मा का शोधन करते हैं तथा उपसर्ग परिषहों के आने पर सुदढ़ रहते हैं.-गड़बड़ाते नहीं हैं, प्रत्युत अपने चिदानन्द स्वरूप में तन्मय रहते हैं । स्वात्मसंवित्ति में मग्न रहते हुए परबस्तु में उन का अणुमात्र भी राग नहीं होता, समितियों का पालन करते हुए वे बहुत सावधान रहते हैं, और गुप्तियों में संलग्न रहने का निरन्तर प्रयत्न करते रहते हैं। जब वे गुप्तियों के पालन में असमर्थ होजाते हैं तब यत्नाचार पूर्वक समितियों में प्रवृत होते हैं। इस तरह वे श्रमण धर्म का यथार्थ रीति से पालन करते हैं। कभी स्वरूपाचरण चारित्र में प्रवृत्त होते हैं और कभी ध्यान अध्यनादि में निमग्न रहते हैं। वे तपश्चरण रूप अग्नि से कर्मरूपी ईधन को जलाकर, केवलज्ञानी वन स्वात्मसुख को प्राप्त करते हैं, और परम पद में स्थित हो जाते हैं तथा अनन्तकाल तक वहां चिदानन्द स्वरूप में मग्न रहते हैं। जो गृहस्थ हिंसादि पंच पापों का एक देश परित्याग कर अणुव्रतादि द्वादश ब्रतों का अनुष्ठान करते हैं वे विकलचारियो गृहस्थ कहलाते है । वे अपने पद में रहते हुए उसका निर्भय होकर पालन करते है और मन्द कार्यों के द्वारा पुण्य का संवर्धन करते हैं । वे विकलचारित्र के धारक गृहस्थ हैं, जिन्हें देशव्रती भी कहा जाता है । श्रावक तीन प्रकार के होते हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ! जिन्हें जैनधर्म की पक्ष होती है वे पाक्षिक कहलाते हैं जो अतिचार सहित मूलगुणों का और अणुव्रतों का पालन करता है, जिन पूजन
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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