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________________ णमोकार ग्रंथ में अनुराग रखता है और व्रतों के धारण करने की इच्छा करता है वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। जो अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षयोपशम होने से दर्शन, व्रतादि एकादश प्रतिमाओं का अनुष्ठान करता है। वह नैष्ठिक धावक कहलाता है, वह निष्ठा से प्रतिमानों का निर्दोष रीति से पालन करता हुआ परिणामों को स्वच्छ रखने का प्रयत्न करता है, और भावशुद्धि के द्वारा प्रागे बढ़ता रहता है। उसमें अतिचार अनाचार नहीं लगने देता। इन प्रतिमाओं में से पहली दर्शनादि छह प्रतिमाओं का पालक जघन्य धावक कहलाता है और सातवीं से हवीं मध्यम श्रावक, और अन्तिम दो प्रतिमानों का धारक उत्तम श्रावक कहलाता है। यह श्रावक अपनी भावविशुद्धि द्वारा सांसारिक देह-भोगों से उदासीन रहता है. और ऐलक तथा क्षुल्लक पद में रहते हुये लंगोटी का भी त्याग करने के लिए उत्कंठित रहता है। तीसरा पद साधक श्रावक का है: जो अपनी प्रात्मरक्षा का साधन करता है । जो व्रती श्रावक देह-भोगों से विरक्त हो पाहारादि का त्यागकर ध्यान शुद्धि द्वारा आत्मा का शोधन करता है और मरण के अन्तिम समय में प्रातै रौद्र प्रादि संक्लेश परिणामों का परित्याग करते हुए अपने शुद्ध चैतन्य रूप का ध्यान करता है। और संल्लेखना या समाधि द्वारा शुभ भावों से शरीर का विधिपूर्वक त्याग करता है। इस तरह रत्नत्रय प्रात्मा की अमूल्य निधि है, और उसके पालन द्वारा मात्मा कर्म-कलंक से मक्त होकर प्रात्मानन्द में निमग्न हो जाता है । अतः इस रत्नत्रय की सदेव आराधना करनी चाहिए। परमानन्द जैन शास्त्री ६५ जवाहरपार्क लक्ष्मीनगर दिल्ली-११००५१
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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