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________________ गर्माकार पंप २ सारथी के यह वचन सुनकर प्रनाथ पशुयों के ऊपर इसप्रकार का प्रत्याचार होने की बातों से भगवान के हृदय पर बढ़ी चोट लगी। वे उसी समय लोगों के देखते-देखते रथ को लौटा ले गए। रप के लौटाते ही लोगों में हाहाकार मच गया। लोगों ने भगवान् को रोवाने का बहुत कुछ उपाय किया परन्तु वे किसी तरह से न रुके। लोगों ने वापस लौटने का कारण पूछा तो भगवान् बोले कि 'एक मेरे सुख के लिए इन हजारों जीवों का घात किया जाएगा। धिक्कार है ऐसे सुख को । मुझे ऐसा सुख नहीं चाहिए। मैं मपने इस इन्द्रिय जनित सुखाभास सुख पर लात मारता हूं मोर उस मार्ग को प्रहण करता हूं जिस पर चलकर में ऐसे प्रगणित जीवों के दुःख निवारण का प्रयत्न कर सकूँ और प्रनादि काल से पीछा किए हुए इन मारम शत्रुमों का विध्वंस कर निबन्ध अवस्था को प्राप्त होकर निराकुलित. स्वाधीन, बचनातीत, अनन्तताल स्थाई, निजात्मीक सच्चा सुख लाभ कर सङ्कं ।' इस प्रकार लोगों के प्रति प्रत्युतर देकर वे सरकाल ही रथ से उतर पड़े और विवाह का सारा श्रृंगार शरीर पर से उतार कर अपने बंध जनों से विषय भोगों से, परिजनों से और साथ ही उग्रसेन महाराज को राजकुमारी राजीमती से सम्बन्ध छोड़ कर वहां से चल दिए पोर जूनागढ़ के निकटस्थ नाना प्रकार के छायादार वृक्षों से सुशोभित गिरनार पर्वत पर जा पहुंचे। उस समय लोकांतिक देव भी प्रवधिज्ञान से भगवान् का दीक्षा समय जानकर तरकाल वहाँ पाए तथा भगवान् को सक्ति नमस्कार करने के मनम्तर उनके वैराग्य की प्रशंसा कर अपना वियोग पूरा करके निज स्थान पर चले गए। इनके चले जाने के पश्चात् । तब ही सवारिक ममर, खेपरेत करियुक्त । माकर प्रभुके पवन में, जे घोषण उक्त ॥ इन्द्रादिक देव माए और भगवान् को स्वर्णमयी रत्न जड़ित देव कुरु नामक पालकी में बैठाकर उन्हें गिरनार पर्वत के सहस्त्राभ्रवन में लिवा ले गए। भगवान् ने सब वस्त्राभूषणों का परित्याग कर अपने सिर के केशों का लोंच किया 1 केशों को ले जाकर इन्द्र ने समुद्र में क्षेपण किया। पश्चात् भगवान् ने मामाभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर मौर सिद्ध भगवान् को नमस्कार कर प्रविनश्वर मोक्ष महल के देने वाली जैनेन्द्री दीक्षा स्वीकार कर ली । दीक्षा लेकर भगवान् दो दिन तक ध्यान में लीन रहे। तमन्तर तीसरे दिन पहीरपुर में धनदस्त सेठ के यहां भगवान् का पारणा हुआ । छप्पन दिन के उपरान्त शुक्ल ध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर लोकालोक का प्रकाशक केवल ज्ञान प्राप्त किण । उस दिन प्राश्विन शुल्क प्रतिपदा और प्रातः काल का समय था । केवल ज्ञान होते ही इन्द्र ने माकर गिरनार पर्वत पर बारह कोठों से विभूषित दो योजन प्रमाण समवशरण रना। भगवान् द्वादश सभाओं के मध्य सिंहासन पर चतुरांगुल पन्तरीक्ष विराजे । देवगण उनके ऊपर चमर दुलाने लगे। भगवान् के ग्यारह गणधर हुए । उन सब में मुख्य गणधर का नाम वरदत्त या। समस्त चार प्रकार के संघ की संख्या-८०० । चौवह पुर्व के पाठी-चार सौ । वादियों की संख्या-आठ सौ। प्राचारोग सूत्र के पाठी शिष्य मुनि-याह हजार । प्रवषि ज्ञानी मुनियों की संख्या-पन्द्रह सौ। केवल शानियों की संख्या-पन्द्रह सौ । विक्रयाविधारी मुनियों की संख्या-ग्यारह सौ। मनः पर्यय शानियों की संख्या१००० । वावित्रऋसिधारी मुनियों की संख्या-गा । समस्त मुनियों की संख्या १८००० ! मार्मिकामों की-४००००। मुख्य प्रायिका का नाम-पदिना। श्रावकों की संख्या-१०००० । धाविकामों की
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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