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णमोकार ग्रंप
छोड़ दे ! यह व्रत सब बलों का मूल और सब प्रकार के सूखों का देने वाला है' सियार ने उपकारी मुनिराज के वचनों को सुनकर रात्रि भोजन त्याग वत ग्रहण कर लिया। कुछ दिनों तक तो उसने इसी बत को पाला पश्चात मांस भक्षण का भी त्याग कर दिया। उसे जो कुछ न्यून अधिक पवित्र भोजन मिल जाता तो कर लेता नहीं तो निराहार ही गुरु का स्मरण चितवन करता हुप्रा संतोष और साम्यभाव पूर्वक समय व्यतीत करने लगा। इस वृत्ति से उसका शरीर बहुत कुश हो गया। ऐसी दशा में एक दिन उसे केवल शुष्क आहार ही खाने को मिला । ग्रीष्म ऋतु का समय था। सियार तब बहुत तृषातुर हमा वह एक कुएं पर पानी पीने को गया। भाग्य से कुएं में पानी भी बहुत नीचे मिला। जब वह पानी पीने की इच्छा से कुएं में उतरा तो वहां उसे अंधकार ही अंधकार मालम होने लगा क्योंकि वहाँ सुयं के प्रकाश का संचार न था इसलिए सियार ने समझा कि रात हो गई अतः वह बिना पानी पिये कुये के
या। बाहर आकर जब उसने सूर्य को देखा तो फिर पानी पीने के लिए नीचे उतरा और फिर पूर्ववत् अन्धकार के भ्रम से रात्रि समझकर वापिस लौट आया।
इस प्रकार वह कितनी ही बार उतरः वहा पर पानी न पी । अल्ल बार-बार उतरनेचढ़ने से वह इतना अशक्त हो गया कि फिर उससे बाहर नहीं पाया गया। तब वह और भी घोर अंधकार के होने से सूर्य को अस्त हमा जानकर संसार समुद्र से पार करने वाले अपने गुरु महाराज का चितवन करने लगा। तृषा रूपी अग्नि उसके तन को भस्म किये डालती थी । परन्तु तब भी वह अपने व्रत में बहुत दृढ़ रहा । उसके परिणाम क्लेश रूप आकुल व्याकुल न होकर बढ़े शांत रहे अन्त में उसी दशा में मर कर कबेरदत्त और उसकी स्त्री धनमित्रा के त प्रीतिकर हना है. तेरा यही अन्तिम शरीर है । अब त कर्मों का नाश कर मोक्ष जायेगा इसीलिए सत्पुरुषों का कर्तव्य है कि कष्ट के उपस्थित होने पर वतों की धैर्यपूर्वक दृढ़ता से रक्षा करे । इस प्रकार मुनिराज के मुख से प्रीतिकर के पूर्वभव का वृतांत सुनकर उपस्थित मंडलो के जनों की जिनधर्म पर अचल व पूर्ण श्रद्धा हो गई और बहुत से मनुष्यों ने यथाशक्ति प्रत धारण किये । प्रीतिकर ने अपने इस पूर्व जन्म के वृतान्त को सुनकर जिनधर्म की बहुत प्रशंसा की और अन्त में उन परोपकार के करने वाले मुनिराज के चरण कमलों को भक्ति से नमस्कार कर व्रतों के प्रभाव को हृदय में विचारता हुआ वह अपने घर पर पाया। मुनिराज के उपदेश का उस पर बहुत गहरा असर पड़ा। उसे अब संसार अस्थिर विषय भोग दुःखों के देने वाले शरीर अपवित्र वस्तुमों से भरा महा घिनावना और जल के बुदबुदेवत् महाविनाशी, धन सम्पदा उल्कापातवत् चंचल मौर केवल बाहर से देखने में सुन्दर प्रतीत होने वाली तथा स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु आदि ये सब अपनी प्रात्मा से पृथक जान पड़ने लगे। उसने सोचा कि ये अपने-अपने स्वार्थ के सगे हैं। किसी रोग अथवा प्रापत्ति के माने पर सब दूर चले जाते हैं । यदि कोई अपना हितकारी है तो वही श्री गुरु हैं जो निष्प्रयोजन हम लोगों को भवसागर में डुबते हुए हस्तावलम्बन देकर पार लगाते हैं। सब वस्तुएं क्षण भंगुर हैं।
जब हमारा रात दिन पालन पोषण किया हुआ शरीर नाश होने वाला है तो इससे सम्बन्धित पदार्थ भी अवश्य ही नाशवान हैं इसलिए अवसर पाकर हाथ से नहीं देने देना चाहिये और फिर यह समय हाथ नहीं पायेगा । काल अचानक पाकर अपना ग्रास बना लेगा और ये सब विचार यहां के यहीं रह जायेंगे। प्रतएव प्रब संसार में भटकने वाले इस मोह जाल को तोड़कर आत्महित करना उचित है । इस शुभ संकल्प के दृढ़ होते ही प्रीतिकर ने पहले अभिषेक पूर्वक भगवान की सब सुखों को देने वाली पूजा की, खूब दान किया। और दुःखी अनाथ अपाहिजों की सहायता की। अन्त में अपने प्रियकर पुत्र को राज्य देकर अपने बन्धु-बान्धयों की सम्मति से योग लेने के लिए विपुलाचल पर भगवान