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________________ णमोकार ग्रंथ बर्द्धमान के समवसरण में पाया और उन त्रिलोक पूज्य भगवान के पवित्र दर्शन कर उसने भगवान के द्वारा जिनदीक्षा धारण कर ली। इसके पश्चात् अनेक प्रकार की परिषहों को साम्यभाव पूर्वक सहा करते हुये नाना उग्र तपश्चरण करने लगे और अंत में शुक्लध्यान के प्रभाव से घातिया कमों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया। उनके केवल ज्ञान को प्रगट हुआ जान कर विद्याधर, चक्रवर्ती, स्वर्ग के देव आदि बड़े बड़े महापुरुष उनके दर्शन, पूजन को माने लगे। प्रीतिकर भगवान ने तब संसार तम को नाश करने वाले पवित्र उपदेशामृत से अनेक जीवों को दु:खों से छुटाकर सुखी बनाया। अन्त में प्रधानिया कर्मों का भी नाशकर परम पद मोक्ष स्थान को कम करते पर वे काका, नहीं रहेंगे। ऐसे श्री प्रोतिकर स्वामी मुझे शान्ति प्रदान करें। जो एक अत्यन्त अज्ञानी पशु योनि में जन्मे सियार ने भगवान के पवित्र धर्म का अंशतः व्रत अर्थात केवल रात्रि भोजन त्याग व्रत स्वीकार कर मनुष्य जन्म प्राप्त किया और उसमें प्रानन्द पूर्वक सुरू भोगकर अन्त में अविनाशी मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति की तब उसे यदि गृहस्थजन धारण करें तो फिर उन्हें क्यों न उत्तम गति प्राप्त हो अर्थात् अवश्य होगी। मथ जीव या प्रकरण : सब जीवों को अपने प्राणों के समान जानकर उनको किचित दु:ख या कष्ट देने के परिणाम न रखना किन्तु दुःखी जीवों के दुख दूर करने की इच्छा रखना दया है। ऐसा जानकर प्रात्महितेच्छुक धर्मात्मा पुरुषों को चाहिये कि जिनपूजा, पात्र दान और कुटुम्ब के पालन पोपण श्रादि के लिए खेती व्यापार आदि आजीविका के कार्यों में जीवमात्र पर दया रखते हुए यत्न पूर्वक प्रवृत्ति करे क्योंकि सदा सब प्राणी अपने-अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं जिस प्रकार अपने प्राण अपने को प्रिय हैं उसी प्रकार ऐकेन्द्रिय से पंचेद्रिय पर्यन्त सब प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्यारे हैं। जैसा कि कहा गया है प्राणायथ्यात्मनो भोटा, भूतानामपितेतथा। आत्मौपम्येन भूतानां बयां कुर्वीतमानवः ॥ अर्थ-जिस प्रकार तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं उसी प्रकार सब जीवों को अपने-अपने प्राणप्रिय हैं। इसीलिए मनुष्यों को अपनी आत्मा की तरह सब जीवों पर दया करनी चाहिये । जिस प्रकार अपने पैर में जरा सा कांटा लगने पर भी वे तजनित वेदना को सहन नहीं कर सकते उसी प्रकार कीड़े घोंटी आदि विकलत्रय तथा पशु, मनुष्य प्रादि कोई भी प्राणधारी दुःख भोगने की इच्छा नहीं करते और न उसके कष्ट को सह सकते हैं अतएव जीवों को अपने मामा के समान दुःखों का अनुभव कर रंचमात्र कष्ट न पहुंचाना चाहिये । धर्म का मुख्य सार यही है कि अपने को अनिष्ट लगने वाले, प्रात्मा के प्रति कूल जो दुःख आदि है उन्हें किसी दूसरे जीव को मत दो। सदा सब पर दया करो। यह दया ही धर्म का मूल है। अहिंसा परमो धर्मः यह शास्त्र वाक्य भी है। इसके विषय में अन्य ग्रन्थों में भी लिखा ही है अहिंसा लक्षणो धर्मो, षर्म: प्राणिनां वधः । तस्माद्धर्माधिभिलोंके, कर्तव्या प्राणिना क्या । अर्थ-जिसमें अहिंसा है वह धर्म और जिसमें जीवों का वध है वह प्रधर्म है। इस कारण धर्माभिलाषी पुरुषों को सदा सब जीवों पर दया करनी चाहिये। जिसके हृदय में क्या नहीं है वह जैन धर्म धारण करने का पात्र नहीं क्योंकि निर्दयी मनुष्य के हृदय में बीज के बिना वृक्ष की तरह पहिंसा लक्षण धर्म की उत्पत्ति, स्थिति और वृद्धि कदापि नही हो सकती ऐसा जानकर निरन्तर जीवमात्र पर दया करता योग्य है दया पालक में हिंसा, झूठ, खोरी, कुशील का स्वत: त्याग होकर सब गुण माकर निवास करते हैं।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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