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________________ णमोकार गंध मान मर्यादा प्रादि सबका नाश करने वाला है। इनमें लवलीन (पासक्न) पुरुषों को इस लोक और परलोक दोनों भवों में कष्ट उठाना पड़ता है। इन दृर्य लनों के सेवन में जिन-जिन व्यक्तियों ने महान दुःख उठाना वे पुराण प्रसिद्ध हैं। इनके नाम ये हैं - जया खेलने से महाराजा युधिष्ठिर ने, मांस भक्षण से राजा बक ने, मद्यपान करने से यदुवंशियों ने, वेश्या सेवन करने से चारुदत्त सेठ ने, चोरी करने से शिवभुति ब्राह्मण ने, शिकार खेलने से ब्रह्मदत्त अन्तिम चक्रवर्ती ने, और पर स्त्री की अभिलाषा करने से रावण ने बड़ी विपत्ति उठाई थी । प्रतएव इनको दुर्गति एवं दुःखों का कारण जानकर दूर हो से मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनापूर्वक त्याग कर देना चाहिए । इनके अतिरिक्त जल का छानना पात्रों को भक्तिपूर्वक दान देना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। ऋषियों ने पात्रों के तीन प्रकार बतलाग हैं -उत्तम पात्र-मुनि, मध्यम पात्र ती धावक और जघन्य पात्र-अविरत सम्यग्दृष्टि। इनके अतिरिक्त जा दीन, दुःखी, रोगी अंगहीन आदि हैं इनको करुणा बुद्धिपूर्वक दान देना चाहिए। सत्पारों को जो थोड़ा भी दान देते हैं उनको उस दान का फल बटबीजवत् अनन्न गुणा मिलना है। जिन भगवान का अभिषेक करना, जिन प्रतिमानों की प्रतिष्ठा करना. रथोत्सव करना, तीर्थयात्रा करना प्रादि भी श्रावकों के मुख्य कर्तव्य हैं । ये सब दुर्गति एवं दुःखों का नाश कर स्वगं या मोक्ष सुख के प्रदान करने वाले हैं अतएव अात्महितेच्छक धर्मात्मानों को इस प्रकार अपना धार्मिक जीवन बना कर अन्त में भगवान का स्मरण चितवन पूर्वक संन्यास मरण करना चाहिए । यही जीवन की सफलता का सच्चा और सीधा मार्ग है। इस प्रकार मुनिराज द्वारा यथार्थ धर्म का उपदेश सुनकर बहुत सज्जनों ने मिथ्यात्व का त्याग कर व्रत. नियम आदि ग्रहण किये। जैनधर्म पर उनकी खड्ग से भेदे जल के समान निश्चल श्रद्धा हो गई। प्रोतिकर ने मुनि महाराज को नमस्कार कर पुन: प्रार्थना की, हे भगवन् करुणानिधान योगिराज ! कृपा कर मुझे मेरे पूर्व भव का वृतान्त सुनाइये। तव निराज बोले-हे राजा ! सुनो। इसी उपवन में कुछ समय पहले सागरसेन नाम के मुनि पाकर ठहरे थे। उनके ग्राममन का समाचार सुनकर अत्यानन्द को प्राप्त हुए उनके दर्शनार्थ प्रायः राजा मादि पुरजन बड़े गाजे-बाजे और प्रानन्द उत्सव के साथ आये थे। वे मुनिराज की पूजा स्तुति कर नगर में वापिस चले गये । तब एक वहां निकटस्थ सियार ने अपने चित्त में विचार किया कि ये नगर निवासी मनुष्य बड़े गाजे-बाजे के साथ किसी मर्नेको डालकर गये हैं । अतः वह उस मुर्दे को खाने के साहस से प्राया। उसे प्राता देखकर मुनिराज ने अवधिज्ञान द्वारा भव्य जानकर और यह सोचकर कि चाहे अभी इसके मन में दुर्ध्यान है परन्तु यह दूसरे भव में व्रतों को धारण कर मोक्ष जायेगा अतएव इसको संबोधित करना आवश्यक है। ___ मुनिराज ने उसे समझाया-हे अज्ञानी पशु ! तुझे मालूम नहीं कि पाप का परिणाम वहुत ही बुरा होता है । देख पाप ही के फल से तुझे इस पशु पर्याय में आना पड़ा और फिर तू पाप करने से मुह न मोड़कर मृतक कलेवर का मांस भक्षण करने के लिए इतना व्यग्र हो रहा है। यह कितने प्राश्चर्य की बात है। तेरी इस इच्छा को धिक्कार है। प्रिय तुझको उचित है कि तेरा जब तक नरकों में पतन न हो उससे पहले अपने उद्धार का यत्न कर ले । तूने अब तक जिनधर्म को ग्रहण न कर बहुत दुःख उठाया पर अब तेरे लिए बहुत अच्छा समय है। इसको व्यर्थ न खोकर कुछ आत्महित की इच्छा यदि रखता है तो त इस पुण्य पथ पर चलना सीख । सियार की होनहार प्राछी थी या उसकी काललब्धिमाई थी यही कारण था कि वह मुनि के उपदेश को सुनकर बहुत शांत हो गया। उसने जान लिया कि मुनिराज मेरी अंतरंग इच्छा को जान गये । मुनिराज उसको शांत चित्त देखकर पुनः कहने लगे'हे प्रिय ! तू और प्रतों को तो धारण नहीं कर सकता इसलिए तू केवल रात्रि का ही खाना पीना
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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