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________________ २४६ णमोकार प्रय आयु बन्ध हो जाता है उसके परिणामों में देशवत धारण करने की रुचि और अनुष्ठान करने योग्य शुद्धता उत्पन्न होती ही नहीं। नारण शाम का भव्य जीवों के निमम पूर्वक कल्पवासी देवायु का ही बन्ध होता है मतएव व्रती श्रावक निश्चय से देव पर्याय पा वहां से चय मध्य लोक में कान्ति, प्रताप, वीर्य, कीर्ति, कुल वृद्धि, विजय विभव का मधिपति हो मांडलिक, चकवर्ती प्रादि उत्कृष्ट पद पाकर मुनिश्रत धारण कर निष्कर्म होकर अनन्तकाल स्थायी मोक्षपद को प्राप्त होते हैं । । इति एकादश प्रतिमा स्वरूप । अय साधक श्रावक वर्णन प्रारम्भ :वेहाहारे हितत्यागात्, ध्यानशुद्ध यास्मशोधनम् ॥ यो जोषितां ते संप्रीतः, साधयत्येष साधकः ॥ प्रार्थ---जो प्रती श्रावक शरीर भोगों से निर्ममत्व होकर चार प्रकार के प्राहार का त्याग कर मन, वचन, काय की क्रियाओं के निरोष से उत्पन्न हुए ग्राद्र रौद्र रहित एकाग्र चिंता निरोध रूप विशुद्ध ध्यान से मरण के अन्तिम समय में जो अपने चैतन्य स्वरूप प्रात्मा को शुद्ध करता है , अर्थात मोह, राग द्वेष को छोड़कर जो अपनी आत्मा के ध्यान करने में तल्लोन है उसको साधक श्रावक कहते हैं । भावार्थ जो अती श्रावक सल्लेखनामरण करने का उत्साही, विषय कषायों को मंदतापूर्वक यथासं यथासंभव अपनी पदवी अर्थात समय पालन करने के प्रतिमा आदि स्थानों को सम्यक प्रकार पालन करता है तथा जो श्रावक अनिवार्य उपाय रहित उपसर्ग पाने पर, बुढ़ापा पाने पर व असाध्य रोग होने पर पात्म कल्याण के लिए सांसारिक शरीर भोगों से विरक्त होकर राग द्वेष सम्बन्ध और बाह्य प्राभ्यन्तर परिग्रह को त्यागकर अर्थात अपनी प्रात्मा से पृथक पर पदार्थों से ममत्व (मोह) त्यागकर शांत परिणाम युक्त अपने पौर उत्साह को प्रगट करके संसार के दुख रूपी संताप को दूर करने वाले अमृत के समान जिन श्रुत के पाठों का पठन, श्रवण करता हुआ विल्कुल क्रम-क्रम से प्राहार, दुग्ध आदि का त्याग कर, मन, वचन, काय की एकाग्रता से शांत परिणाम युक्त परमात्मा व स्वात्मा का चितवन करते हुए शरीर रूप गृह का त्याग करता है उसे साधक श्रावक कहते हैं । यथोक्तं धर्म संग्रह श्रावकाचारे शोसन्ते सन्न्यासमादाय, स्वात्मानं शोधयेदि । सबा साषममापन्नः साधकः श्रावको भवेत् ॥ प्रर्ष-जो नैष्ठिक श्रावक मरण समय में सन्यास को ग्रहण करके यदि अपनी पात्मा को शुव करे तो उस समय साधन दशा को प्राप्त होता हुआ धावक साधक कहा जाता है। इति साधक श्रावक वर्णनम् । अथ लोकाधिकारः। लोक स्वरूप वर्णनःइस मनन्तानन्त प्राकाश के बीचों बीच अनादि निधन घनोदधि वातवलय, धन वातवलय और तनुवातवलय नामक तीन वातवलयों से वेष्ठित (घिरा हुआ) आकाश के प्रदेशों में निराधार लोक स्थित है। वास्तव में तो लोक एक ही है परन्तु व्यवहार में उर्व (ऊपर) का मध्य (बीच का) भेद करके लोक को तीन लोक रूप कहते हैं । यह लोक नीचे से सात राजू चौड़ा और सात हो राजू लम्बा है और ऊपर से एक राजू चौड़ा पौर सात राजू लम्बा है। मध्य में से कहीं घटता हुमा जिस प्रकार मनुष्य अपने
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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