SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमोकार प्रय अथ विद्दष्ट त्याग मा स्वरूपः प्रार्या छन्दगृहतो मुनिवनमित्वा, गुरुपकन्ठे व्रतानि परिगृह्य । भक्ष्याशनस्तपस्य, कुष्टश्चेलखण्ड परः॥ अर्थ-..जो धर से मनिवन को प्राप्त होकर गुरु के निकट व्रत धारण करके तप करता हश्रा भिक्षा भोजन करता है यह खण्ड वस्त्र का धारी उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक व अहिलक (ऐलक) है। भावार्थ-जब अनुमति त्याग, श्रावक चारित्र मोहनीय कर्म के मंद हो जाने से पंचाचार प्राप्ति एवं रत्नत्रय की शुद्धता के निमित्त गृहबास त्याग बन में जाकर गुरु के निकट उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा धारण करता है और अपने लिए किए हुए भोजन, शयन, भासन, उपकरण आदि का त्याग कर देना है उसे ग्यारहवीं प्रतिमा वाला उद्दिष्ट त्यागी कहते हैं। इस प्रतिमा का धारण करने वाला श्रावक मुनि के समान मन, वच, काय, कृत, कारित, अनुमोदना सम्बन्धी दोप रहित भिक्षाचरण पूर्वक याचना रहिन निर्दोष शुद्ध प्राहार गृहस्थी ने जो स्वतः अपने लिए प्रारम्भ करके बनाया हो उस ही को ग्रहण करता है भोजन के लिए किसो के बुलाने से नहीं जाता किन्तु भोजन के समय गृहस्थों के घर जाकर उनके मांगन में खड़े होकर अपना आगमन जताकर यदि वे भक्ति पूर्वक पाहार कराये तो आहार करता है अन्यथा अति शीघ्न वहाँ के लौट जाता है और इसी प्रकार से जिस गृहस्थ के भोजन हो जाए वहाँ से लौटकर वन में जा पुनः धर्म सेवन में सत्तर होता है। इस ग्यारहवी प्रतिमा वाले उद्दिष्ट विरत धावक के दो भेद होते हैं-प्रथम क्षुल्लक आवक श्वेत कोपीन. (लंगोटी) और ओढ़ने के लिए एक खंड वस्त्र जिससे सिर के तो पांव उघड़े रहे और पांव ढके तो सिर उघड़ा रहे और मल मूत्र प्रादि शारीरिक अशुद्धियों को दूर करने के लिए प्राशुक जल महित कमन्डलु रखते हैं जल पानार्थ नहीं तपा जीव दया निमित्त स्थान संशोधन के लिए मयूर पिच्छिका व पठन-पाठन के लिए पुस्तक रखते हैं और दाढ़ी मूछ तथा सिर के बालों को कैची व उस्तरे से किसी दूसरे मनुष्य से कटवाते हैं, काँख के बाल बनबाने का निषेध है। दूसरा ऐलक कोपीन, पीछी और कमन्टलु मात्र रखते हैं तथा गृहस्थ के द्वारा अपने हाथ में समर्पण किये हुए भोजन को शोधकर खाते हैं, थाली प्रादि किसी वर्तन में नहीं यह अपने दाढ़ी मूछ मौर शिर के बालों का उत्कृष्ट दो मास, मध्यम तीन मास और जघन्य चार मास में लोंच करते है अर्थात अपने हाथों से उखाड़ डालते हैं और प्रात्म ध्यान में सदैव तत्पर रहते हैं। उदिष्ट त्यागी को शास्त्रों में मुनि का लघु भ्राता कहा जाता है अतएव हिंसा प्रादि पापों के पूर्ण रूप से त्याग करने रूप परिणामों में आसक्त उत्कृष्ट श्रावक को ग्यारहवीं प्रतिमा का अभ्यास कर अन्त में अवश्यमेव मुनिव्रत धारण करने चाहिये । इस प्रकार श्रावक धर्म को पालन करने बाले भव्य जीव यथायोग्य नियम के सोलहवें स्वर्ग पर्यन्त जाकर महद्धिक व इन्द्रादिक उच्च पदस्थ देव होते हैं। यथोक्तं धर्म संग्रह श्रावकाचारेएष निष्ठापरो मच्यो,नियमेन सुरालपम् । गच्छत्यच्युतपर्वतं क्रमशः शिवमंदिरम् ! अर्थ-इस प्रकार निष्ठा (प्रतिमानों के पालन) में तत्पर यह भध्यात्मा नियम से अच्युत विमान पर्यंत जाता है और क्रम से मोक्ष को प्राप्त होता है । क्योंकि जिस जीव के देवायु के अतिरिक्त अन्य
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy