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णमोकार ग्रंथ
ॐ ह्रीं अहे जग-नाया म.,६३६।। प्रा८ तीनों लोकों के स्वामी होने से जगन्नाथ कहलाते हैं 11८३१||
ॐ ह्रीं मह जगद्धघवे नमः ।।८३२॥ आप तीनों लोकों की हित भावना रखने से जगत्वंधु हैं ।।८३२।।
ॐ ह्रीं अह जगद्विभुवे नमः ।।८३३।। समस्त जगत् के प्रभु होने से आप जगद्विभु हैं ॥८३३॥
ॐ ह्रीं अह जगजितषे नमः ।।८३४।। तोनों लोकों के लिये कल्याण करने की इच्छा रखने से पाप जगद्धितैषी हैं ।।८३४।।
ॐ ह्रीं अर्ह लोकशाय नमः ।।८३५।। तीनों लोकों के जानने से पाप लोकश हैं ।।८३५।।
अह्रीं मह सर्वगाय नमः ॥८३६।। केवलज्ञान के द्वारा सब जगह व्याप्त होने से पाप सर्वग हैं ।।८३६॥
ॐ ह्रीं अहं जगदग्रजाय नमः ।।८३७।। समस्त जगत में श्रेष्ठ होने से अथवा जगत् के मुख्य स्थान में उत्पन्न होने से प्राप जगतग्रज हैं ।।८३७।।
ॐ ह्रीं ग्रहं चराचर गुरुवे नमः ।।८३८॥ पाप त्रस, स्थावर मादि सभी जीवों के गुरू होने से घराचर गुरू हैं ॥८३८||
ॐ ह्रीं अहं गोप्याय नमः ।।८३६॥ हृदय में बड़े यल से स्थापना करने के योग्य होने से प्राप गोप्य हैं ।।८३६॥
ॐ ह्रीं अहं गूढात्मने नमः ।।८४०॥ पापका स्वरूप अत्यन्त गुप्त होने से प्राप गूढात्मा हैं ।।८४०
ॐ ह्रीं प्रहं गूढ़ गोचराय नमः ।।८४१।। गूढ़ अर्थात् जीवादि पदार्थों के जानने से पाप गूढ़ गोचर हैं ।।८४१॥
ॐ ह्रीं अहं सद्यो जाताय नमः ।।८४२|| सदा तुरन्त ही उत्पन्न होने के समान देख पड़ते हैं अर्थात् सदा नवीन ही जान पड़ते हैं इसलिये आप सद्योजात हैं ॥८४२।।
ॐ ह्रीं मह प्रकाशात्मने नमः ।।८४३|| पाप प्रकाशरूप होने से प्रकाशात्मा हैं ।।८४३।।
ॐ ह्रीं अह ज्वलनज्वलनसप्रभाय नमः ।।८४४|| प्रज्वलित हुई अग्नि के समान दैदीप्यमान होने से प्राप ज्वलन ज्वलन समभ कहलाते हैं ||८४४॥
ॐ ह्रीं अहं आदित्य वर्णाय नमः ॥८४५।। सूर्य के समान तेजस्वी होने से प्राप आदित्य वर्ण कहलाते हैं ।१६४५।।
ॐ ह्रीं प्रर्ह भर्मामाय नमः ।।८४६।। सुवर्ण के समान कान्तियुक्त होने से प्राप भर्माभ हैं ।।८४६॥
ॐ ह्रीं मह सुप्रभाय नमः ।।८४७॥ मन के लिये प्रानन्द दायक सुन्दर कान्ति होने से प्राप सुप्रभ है ||८४७||
ॐ ह्रीं ग्रह कनकप्रभाय नमः ।।८४८॥ ॐ ह्रीं ग्रहं सुवर्णवर्णाय नमः ।।८४६।। ॐ ह्रीं अहं रुक्माभाय नमः ।।८५०॥
सुवर्ण के समान उज्वल कान्तियुक्त होने से पाप कनकप्रभ है ।। ८४८1 सुवर्णवर्ण हैं ।।४६।। तथा रुक्माभ कहे जाते हैं ।।५०॥