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णमोकार प्रेष
प्रकार अंगरहित सम्यग्दर्शन भी संसारसंतति को अर्थात् संसार भ्रमण को नहीं मिटा सकता मतएव ये प्रष्ट दोष त्यागने योग्य हैं। तीन मढ़ता
देव मूढ़ता--किसी प्रकार के संसारिक भोगों को प्राप्ति की इच्छा करके राग-द्वेष रूपी मैल से मलिन, अस्त्र-शस्त्र अलकारधारी देवों की भक्ति पूजा करना देव मूढ़ता है।
गुरु मूढ़ता - कुदेवों के सदृश आडम्बर रखने वाले, परिग्रह प्रारम्भ और हिंसादि दोषयुक्त, कामी, क्रोधी, अभिमानी, पाखण्डी, साधु तपस्वियों का प्रादर, सम्मान, पूजा, भक्ति, पाराधना, प्रशंसा करना गुरु मूढ़ता है।
लोक मूढ़ता-जिस क्रिया में धर्म नहीं उसमें अन्य मतावलम्बियों के उपदेश से तथा देखा-देखी उनमें धर्म समझकर प्रवृत्त होना लोक मूढ़ता है । यथा-गंगा यमुना आदि नदियों में स्नान करना, देहली पूजना सूर्य तथा चन्द्र को मर्घ देना, सती होना आदि।
___षड् अनायतन-कुधर्म, कुगुरु, कुदेव तथा इनके सेवकों को धर्म का आयतन समझ कर उनकी स्तुति करना षड् अनायतन है । ये षड् बनायतन भी सम्यग्दृष्टि को हेय हैं।
अष्ट मद-विद्या, प्रतिष्ठा, कुल, जाति, वल, संम्पत्ति, तप तथा अपने शरीर की सुन्दरता का मद करके अपने पात्महित को भूल जाना, ये माठ मद दोष हैं।
सम्यक्त्वी को ये भी अपनी मात्मा से पृथक और क्षणभंगर आनकर इनकी छोड देना चाहिए क्योंकि ये सब ही कारण पाकर क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं। इसीलिए सम्यग्दृष्टि को कदापि क्षणभंगुर अवस्था का मद नहीं करना चाहिए । इस प्रकार सम्यक्त्व की निर्मलता के लिए पाठ मल दोष, पाठ मद दोष, षड् अनायतन, तीन मूढ़ता इस प्रकार २५ दोषों का सर्वथा त्याग करना चाहिए । इन उपर्युक्त २५ दोषों से रहित सम्यक्त्व का अष्टांग सहित जो पालन करता है, वह सम्यग्दृष्टि है । यह सम्यग्दर्शन जब किसी जीव के पूर्व जन्म के तत्व विचार के संस्कारों से, वर्तमान में पर के उपदेश के विना अपने प्राप ही उत्पन्न होता है तो निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है तथा जब किसी जीव के वर्तमान पर्याय में अन्य के उपदेश के द्वारा तत्व विचार करने से उत्पन्न हो तो उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं।
इस प्रकार निर्मल सम्यक्त्व के धारण करने से शुद्ध अन्तःकरण वाले यदि चारित्र मोहनीय कर्म के अधीन होने से किचित् ब्रत उपवासादि न कर सकें तो भी सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक, तिर्यच नपुंसक पौर स्त्रीलिंग को तथा नीच कुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते हैं। सारांश यह है कि इस जीव का सम्यक्त्व के समान तीन लोक में सच्चा कल्याण करने वाला कौन मित्र नहीं और मिथ्यात्वसम शत्रु नहीं प्रतएव शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टिप्रशंसा, अन्यदृष्टिसंस्तव इन पांच मतिचारों को त्याग सम्यक्त्व को निर्दोष धारण करना चाहिए क्योंकि सम्यक्त्व रूपी बीज के बिना बीज और वृक्षवत् ज्ञान और चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि पौर फल का लगना असम्भव है।
भावार्थ-सम्यक्त्व रूपी बीज को अपने हृदय रूपी भूमि में निर्मल धारण किये बिना शान की उत्पत्ति, स्थिति तथा चारित्र की वृद्धि द्वारा मोक्षफल नहीं लगता। इसके बिना जो हमारा शान है, वह मिथ्याज्ञान कहलाता है और ब्रतादिक धारण करना कुचारित्र कहा जाता है। सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर हेयोपादेय का ज्ञान होकर पारमाहित के मार्ग में क्पार्थ प्रवृत्ति हो सकती है अतएव सबसे पहले सम्यक्त्व को ही धारण करना चाहिए ऐसा प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है।
।। इति श्री सम्यक्स्वविवरण समाप्तम् ।।