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________________ 1 णमोकार ग्रंथ *11 मेरा रथ नहीं निकलेगा, तब तक मुझे भोजन का त्याग है। यह प्रतिज्ञा कर जिस क्षत्रिया नाम की गुफा में सोमदत्त श्रीर वज्रकुमार मुनिराज रहा करते थे, वहाँ पहुँचकर उन दोनों को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके कहने लगी 'हे अज्ञानरूपी अन्धकार के नाश करने वाले सूर्यो ! आप को मैं शरणागत हूं पौर प्राप मेरे दुःखहर्ता हैं । इस समय जैन धर्म पर उपसर्ग या रहा है । उसे नष्ट कर उसकी रक्षा कीजिए।' इस प्रकार उनसे निवेदन कर अपने रथ के निकलने में अवरोध का कारण वह मुनिराज से कह रही थीं कि इतने में ही वखकुमार तथा सोमदत्त मुनि की वन्दना करने को दिवाकर देव श्रादि बहुत विद्याधर पाए । वज्रकुमार मुनि ने उनसे कहा- माप लोग समर्थ हैं मोर इस समय जैन धर्म पर संकट उपस्थित है । बुद्धदाशी ने महारानी उर्मिला का रथ रुकवा दिया है। अब माप जाकर यथायोग्य उपाय से इसका रथ निकलवा दीजिए । कुमार मुनि की भाशा को शिरोधार्य कर सब विद्याधर अपने-अपने विमान पर श्रारूढ़ होकर मथुरा आए । प्रथम तो जो धर्मात्मा होते हैं, वे स्वयं हो धर्म प्रभावना करने में तत्पर रहते हैं, तब इनको तो पुतिराज ने प्रेरणा दी है. इसलिए सब विद्याधरों ने उर्मिला रानी के साध्य की सिद्धि के लिए बुद्धदाशी को बहुत समझाया और कहा- जो पुरानी रीति है, जैसे ही कार्य करना मच्छा है ।' पर बुद्धदाशी तो श्रभिमान के वशीभूत हो रही थी, इसलिए वह क्यों मानने लगी ? विद्याधरों ने अपना सीधे तरीके से न होता हुआ देखकर बुद्धिदाशी के नियुक्त किए हुए सिपाहियों से युद्ध कर उनको बात की बात में भगा दिया। तत्पश्चात् बड़े समारोह और उत्सव के साथ उर्मिला का रथ निकलवा दिया । रथ के निकलने से सबको बड़ा श्रानन्द हुआ, इससे जैन धर्म की बहुत प्रभावना हुई और सर्वसाधारण पर इस रथोत्सव से जैन धर्म का बहुत प्रभाव पड़ा। बहुतों ने मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यक्त्व को ग्रहण किया । बुद्धदाशी और राजा पर भी इसका अच्छा प्रभाव पड़ा । उन्होंने भी शुद्धान्तकरण से जैन धर्म स्वीकार किया । जिस प्रकार श्री वण्यकुमार मुनिराज ने धर्म प्रेम के वश होकर जैन धर्म की प्रभावना कराई, उसी प्रकार और भव्य पुरुषों को भी संसार का उपकार करने वाली और स्वर्ग मोक्ष सुख को प्रदान करने वाली प्रतिष्ठा, रथोत्सव, जिनयात्रा, चतुर्विधान, जीर्णोद्धार तथा स्याद्वाद विद्यालय यादि द्वारा जैन धर्म की प्रभावना करनी चाहिए । धर्म प्रेमी श्री ब्रजकुमार मुनि बुद्धि को नित्य जैन धर्म में दृण करें जिसके द्वारा में भी मोक्ष मार्ग पर चलकर अपना अन्तिम साध्य अर्थात् मोक्षसुख को प्राप्त कर सकूं । इस प्रकार यह सम्यक्त्व के माठ अंगों का प्रत्येक अंग में प्रसिद्ध होने वाली कथा के सहित स्पष्ट वर्णन किया गया । सम्यक्त्व के २५ मल दोषों का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार हैअष्टदोष नाम-उपर्युक्त सम्यक्त्व के प्रष्ट थंगों से प्रतिकूल शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ दोष हैं, जो पच्चीस दोषों में गर्भित है । प्रतएव निर्दोष सम्यक्त्व पालन करने के इच्छुक भव्य जीवों को मन, बचन, काय से इनका त्याग करना चाहिए, क्योंकि यथोक्तं श्री समंतभद्राचार्यकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचारे नाङ्गहीनमलं दर्शनं जन्मसंततिम् । नहि मंत्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति निषवेदनाम् ॥ अर्थात् जैसे अक्षर न्यून मंत्र (अशुद्ध मंत्र ) विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता, उसी
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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