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________________ ३४० णमोकार अन्य पश्चात् उच्छवास और दिन के साढ़े बारहवें भाग के पश्चात् माहार होता है। उदधि कुमार और स्तनित क मारों के बारह मुहूर्त के बारहवें भाग बीतने पर उच्छवारा और दिन के बारहवें भाग बीतने पर आहार होता है। दिक्कुमार, अग्निकुमार और वातकुमारों के साढ़े सातवें भाग पर उच्छवास और दिन के सातवें भाग के पश्चात् पाहार होता है । प्रागे इनके शरीर की ऊँचाई कहते हैं असुरकुमारों के शरीर की ऊँचाई पच्चीस धनुष, अवशेष नागकुमार प्रमुख वातकुमार पर्यन्त नव प्रकार के भवनवासियों की ऊँचाई नस धनुष होती हैं । सातर देवों को भी दम धनुष तथा ज्योतिषी देवों की सात धनुष होती है। इति भवनवासी देव वर्णनम् । अथ व्यन्तर देव वर्णन प्रारम्भः :--- ध्यन्तर देव (१) किन्नर, (२) किं पुरुष, (३) महोरग, (४) गंधर्य, (५) यक्ष, (६) राक्षस, (७) भूत और (८) पिशाच-ऐसे पाठ प्रकार के हैं। अब इन पाठों प्रकार के ध्यन्तर देवों का क्रम से शरीर का वर्ण कहते हैं-- किन्नरों के शरीर का वर्ण प्रियंगुफल के सदृश, किंपुरुषों का धवल, महोरगों का श्याम, गंधवों का सुबण सम, यक्ष, राक्षस तथा भूत इन तीनों का श्याम वर्ण और पिशाचों का प्रति कृष्ण वर्ण है । ये सब देव अङगजा इत्यादि लेप और आभूषणों से युक्त होते हैं। इन किन्नर प्रादि पाठ प्रकार के व्यंतर देवों के क्रमशः अशोक, चंपा, नागकेशर बबली, बड़, कठतरु, कुतली और कदम्ब नाम के वृक्ष होते हैं। इन प्रत्येक चैत्य वृक्षों के मूल भाग में प्रत्येक धारक पाठ दिशा में चार-चार पल्यंकासन जिन प्रतिमा विराजमान हैं और वे प्रतिभाचार तोरणो से संयुक्त हैं इसी कारण इन वृक्षों को चैत्य वृक्ष कहते हैं । उन प्रत्येक प्रतिमाओं के अग्रभाग में पीठ के ऊपर मान स्तम्भ स्थित हैं। उन मानस्तम्भों के तीन-तीन कोट हैं । ये सब मानस्तम्भ मोतियों की माला क्षुद्र घटिका आदि से सुशोभित हैं। आगे इन व्यंतर देवों के कुल प्रतिभेद कहते हैं :-किन्नर, किंपुरुष महोरग और गन्धर्व-इन चार कुलों में दस-दस भेद अवांसर हैं। यक्षों में बारह, राक्षसों में सात और पिशाचों में चौदह भेद अवांतर है। जिस प्रकार यहाँ पर मनुष्यों में क्षत्रिय, वैश्य प्रादि कुलभेद होकर फिर क्षत्रिय कुल में इक्ष्वाकुवंश, सोमवंश ग्रादि प्रभेद होते हैं उसी प्रकार व्यन्तरों में जानने चाहिए । व्यन्तरों के प्रत्येक कुल में दो-दो इन्द्र हैं । अब आगे व्यन्तरों के प्रस्सी भेदों के नाम व इन्द्रों के नाम कहते हैं किन्नर जाति के व्यन्तरों के (१) किंपुरुष, (२) किन्नर, (३) हृदयंगम, (४) रूपपाली, (५) किन्नर-किन्नर, (६) भनिदित, (७) मनोरम, (८) किन्नरोत्तम (६) रतिप्रिय और (१०) ज्येष्ठ ऐसे बस भेद हैं । इन किन्नरों में किंपुरुष और किन्नर दो इन्द्र हैं। इनमें किंपुरुष के प्रवतंसा पौर केतुमती और किन्नर के रतिषण और रतिप्रिया नाम की दो-दो बल्लभिका देवांगनाएं हैं। किंपुरुष जाति के व्यन्तरों के (१) पुरुष, (२) पुरुषोत्तम, (३) सत्य पुरुष, (४) महापुश्य, (५) पुरुषप्रभ, (६) अतिपुरुष, (७) मरु, (८) मरुदेव, (६) मरुप्रभ और (१०) यशस्वान्-ऐसे दस भेद हैं । किंपुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष नामक दो इन्द्र हैं। इनमें सत्पुरुष के रोहिणी और नवमी मौर महापुरुष के ह्री और पुष्पवती नाम की दो-दो वल्लभिका देवांगनाएं हैं । प्रत्येक वल्ल भिका देवांगना एक-एक हजार परिवार देवियों से युक्त हैं।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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