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________________ २६३ नमोकार चं तदनन्तर अपने विचारानुसार महाराज अरविंद ने पुत्र को राज्य भार देकर शिव सुख की साधक जिन दीक्षा ग्रहण कर ली । तत्पश्चात् परविंद मुनिराज बहुत से देशों और नगरों में भ्रमण कर अनेक भव्यजनों को आत्महित की ओर लगाते हुए सम्मेद शिखर की यात्रा के विचार से विहार करते हुये संघ सहित सल्लकी बन में पाकर ठहरे। संध्या का समय होने पर मुनिराज प्रतिमायोग धारण कर ध्यान करने लगे कि इतने में मरूभूत मंत्री का जीव बचघोष नामक हाथी भयानक गर्जना करता हुमा संघ की प्रोर प्राया । परन्तु साधू मेरु समान स्थिरता से ध्यान करते रहे । पषिक जनों का उसकी पोर गर्जना सुनकर प्रावागमन बंद हो गया। कितने ही जो मज के धक्के से गिर पड़े थे उनका प्राणांत हो गया। जब वह हाथी अरविंद मुनि के पास आया तो उनके हृदयगत श्रीवत्स लक्षण को देखकर उसे जातिस्मरण हो गया। तब वह तत्काल शांत चित्त होकर मुनिराज के चरणों में बारम्बार शीश नमाकर नमस्कार करने लगा। अरविंद मुनिराज उसके हृदयगत पभिप्राय को जानकर कहने लगे : प्रशानी पशु ! तुझे मालम नहीं कि पाप का परिणाम बहत बरा होता है। देख पाप के ही फल से तुझे इस हाथी पर्याय में आना पड़ा। फिर भी तू पाप करने से मुंह न मोड़कर अनेक जीवों को खूदता हुआ मदोन्मत्त विहार करता है । यह कितने प्राश्चर्य की बात है । देख तूने जिन धर्म को न ग्रहण कर माज कितना दुख उठाया। पर अब तेरे लिए बहुत अच्छा समय उपस्थित है। प्रतएव तू आत्म हित का मार्ग ग्रहण कर । हस्ती की होनहार मच्छी थी या उसकी काललब्धि श्रा गई थी । यही कारण था कि मुनि के उपदेश को सुनकर उसके परिणामों में विलक्षण परिवर्तन हो गया । उसे अपने कृत कर्म पर मत्यन्त पश्चाताप हुमा । मुनिराज के उपदेशानुसार सम्यक्तपूर्वक उसने प्रत सहण किए। तदनन्तर मुनिराज तो उस गयन्द के लिए हिंसामयी पवित्र जिन शासन का उपदेश देकर विहार कर गए । हाथी अपने ग्रहण किए व्रतों का पूर्णतया पालन करने लगा। उसे जो कुछ थोड़ा बहुत शुष्क पल्लवादि पवित्र आहार मिल जाता था उसी को खाकर रह जाता था और पंचपरमेष्ठी के चरणों का स्मरण करता रहता था। इस प्रकार कभी खाने को मिलने और कभी न मिलने के कारण वह हाथी बहुत कृश हो गया। ऐसी दशा में एक दिन उसे बहुत जोर की प्यास लगी। तब वह वेगवती नामक नदी के किनारे पर जल पीने को गया दुर्भाग्य से वहाँ पर बहुत दलदल हो रही थी । जब वह किनारे पर जलपान करने के मभिप्राय से पहुँचा तो यह उस दलदल में फंस गया । उससे इसने निकलने की कोशिश की पर दलदल से बाहर न निकल सका कारण कि कभी माहार मिलने और कभी न मिलने से बह पहले ही बात प्रशस्त हो गया था। प्रत में अपने को बलदल से निकलने में असमर्थ समझकर वहीं वह संसार समुद्र से पार करने थाले समाधिमरण को धारण कर पंच परमेष्ठी का स्मरण चितन करने लगा। इसी समय इसके पूर्वभव का भ्राता कमठ का जीव मरकर जो इसी वन में कुक्कुट नामक सर्प हुमा था, इस पोर प्रा निकला। उसकी जैसे ही इस पर नजर पड़ी वैसे ही उसे अपने पूर्व बैर की याद आ गई। उसने कोष से मधे होकर अवघोष हाथी को डस लिया। पर अजधोष हाथी में कुमकुंट प्रहिकृत कष्ट को बड़ी शान्ति के साथ सहकर प्रायु के अन्त में साम्य भाव के फल से द्वादशम स्वर्ग लोक प्राप्त किया।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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