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________________ णमोकार ग्रंथ २९ बोला तब पापी कमल, सुनो मित्र निरधार । जो नहि मिले बसुन्धरी, तो मुझ मरण विचार ।। कलहंस को मित्र के दुराग्रह पर बाधित होकर इस दुष्कृत के अभियोग में कटिबद्ध होना पड़ा। कलहंस बसुन्धरी के पास पहुंचा और कहा-'बसुन्धरे ! आज कमठ बन में व्यथा से पीड़ित हैं अतएव तुम जाकर उसकी खबर लो।' बसुन्धरी उसके हृदयगत क्रपट को न जानकर सरलचित्त से कमठ के पास गई। बस फिर क्या था ? उसने उससे बलात्कार कर अपनी नीच मनोवृत्ति की तृप्ति की। कुछ समय के मनगर जब राजा विजय नामी प्राप्त कर वापिस पाए और जब उन्हें कमठ के इस दुराचा का पता लगा, तो उन्होंने उसे गधे पर चढ़ाकर नगर से निकाल दिया। कमठ अपमान स्वरूप अग्नि से दहा हुमा भूताचल पर्वत पर जहाँ तापसियों का प्राश्रम है, वहाँ गया और उनसे दीक्षा लेकर हाथों पर शिला लिए हुए निविवेक कायक्लेश जप करने लगा। एक समय मरूभूत को जब कमठ का भूताचल शैल पर तप करने का अनुसंधान लगा तो वह मिलने के लिए भाई के पास गया और बोला--'भाई ! मेरा अपराध क्षमा करना मैंने तो राजा को बहुत समझाया था पर महाराज ने मेरा कहना न माना और तुम्हें इतना कष्ट दिया ।' ऐसा कहता हा मरूभूत भाई से क्षमा मांगने को उसके पैरों पर गिर पड़ा। परन्तु उस दुष्कर्मी कमठ ने उसे निदोषी होने पर भी क्षमा करने के बदले अपमान कराने वाला समझकर क्रोधाग्नि से जलते हुए उसके मस्तक पर शिला डाल दी। जिससे वह मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा मौर रुधिर धारा बहने लगी। थोड़े ही समय के अनन्तर अपने प्राण भी विसर्जन कर दिए और सल्लको वन में बजघोष नामक हाथी की पर्याय धारण की। उधर जब तापसियों को कमठ की इस दुष्टता का पता लगा तो उन्होंने उसे अपने प्राश्रम से निकाल दिया। तब बह बहाँ से भी अपमानित होकर भीलों के समुदाय में जा मिला और चोर कर्म करने लगा। एक समय इसी दुष्कृत में पकड़ा गया और उसे अपने कर्तव्य पर्म के फल से मारनपीड़नादि विविध प्रकार के दुःख भोगने पड़े अन्त में दुर्ध्यान से मरण कर उसी सालको वन में कुकुट नामक सर्प हमा । अथानन्तर एक दिन महाराज अरविंद अपने महल पर बैठे हए प्रकृति की सुन्दरता को देख रहे थे कि इतने में उन्होंने एक बड़ा भारी बादल का टुकड़ा गगन मंडल में देखा जो बहुत दूर होने से परम सुन्दर प्रतीत होता था। उसकी मनोहरता पर महाराज अरविंद मुग्ध होकर लेखनी व रंगों को मंगाकर उसी प्रकार चित्र खींचने के प्रभियोगी हुए कि इतने में ही वायु के चलने से बादल छिन्न-भिन्न होकर देखते-देखते न मालूम कहा अन्तहित हो गया। बादलों की इस क्षण नश्वरता का महाराज अरविंद के चित्त पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। वे विचारने लगे कि जिस प्रकार ये बादल प्रांखों के देखते-देखते नष्ट हो गए उसी प्रकार ये संसार भी तो क्षण भंगुर है । यह पुत्र, पौत्र, स्त्री तथा और बंधुजनों का जितना समुदाय है वह सब दुख का देने वाला है। और यह शरीर भी तो जिससे प्यार करते हैं, वह भी व्याधियों से ग्रसित दुःखमय और देखते-देखते नष्ट होने वाला है। इन्हीं के मोह में फंसकर यह जीव माना प्रकार के दुःखों को भोगता है। जिन उत्तम पुरुषों ने अपनी आत्मा को इस मोह जाल से निकालकर जिन दीक्षा ग्रहण की है वे ही इस दुस्तर संसार समुद्र से पार होकर शिव सुरस के भागने वाले हुए हैं । मैं कितना मूर्ख हूं जो प्रब तक अपने हित को न शोष सका । अतएव प्रब मुझको उचित है कि पुत्र, बंधु तथा धनादि का सम्बन्ध छोड़कर पारम हित का पथ जैतेन्द्री दीक्षा ग्रहण करू।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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