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________________ સર્ णमोकार ग्रंथ और आकाश से जय-जय शब्द होने लगे । देवों ने श्रीपाल के गले में पुष्पमाला पहनाई और बोले"राजन् ! तुम दयालु हो। इसको छोड़ो।" तब श्रीपाल ने वीरदमन को छोड़ दिया बोरदमन बोलेहे मित्र ! यह तू अपना राज्य संभाल। मैंने तेरा बल देख लिया । यथार्थ में तू महावली है। तेरी कीर्ति सब दिक्षाओं में सच्ची ही फैल रही है। हमारे इस वंश में तेरे जैसे शूरवीर ही चाहिये।" तब शूरवीर श्रीपाल बोले - "हे तात ? यह सब आपका ही प्रसाद है। जो आप की प्राशा हो वह करू | अब आप मुझे आज्ञा दीजिए और निश्शंक हो प्रभु का भजन कीजिए वीरदमन बोले"हे पुत्र ? ठीक है। मेरा भी यही विचार है कि तुझे राज्य देकर जिनदीक्षा लू" जिससे भववास मिटे । " यह कहकर वीरदमन ने श्रीपाल को राज्याभिषेक कराकर राज्य पद दे दिया और बोले- "हे धीरवीर ? अब तुम चिरकाल तक सुख से राज्य करो और नीति व न्याय पूर्वक पिता पुत्रवत् प्रजा का पालन करो । दुःखी दरिद्रियों पर दयाभाव जो और क्षमा करो। कुछ जे तुम्हारे विरूद्ध हुआ है वह सब में भूल जाऊँगा अब दीक्षा रूपी नाव में बैठकर कर्म शत्रु को जीतकर भव-सागर से तिरुगा ।" इस प्रकार वीरदमन अपने भतीजे श्रीपाल को राज्य देकर स्वयं वन में गये और वस्त्राभूषण उतार कर केशों का पंचमुष्ठी से लोंच किया, चौबीस प्रकार के परिग्रह को तजकर पंच महाव्रत धारण किए और घोर तपश्चरण कर घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और बहुत जीवों को धर्मोपदेश देकर संसार से पार किया। पश्चात् शेष बचे हुए प्रघातिया कर्मों को भी आयु के अन्त में निःशेष वार परम धाम मोक्ष को प्राप्त किया । महाराज श्रीपाल ग्राठ हजार रानियों सहित इन्द्र के समान सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगे । देश-देश में इनकी ख्याति होने लगी। प्रजा भी इनके शासन से बहुत सन्तुष्ट हुई। इस प्रकार इनका राज्य करते हुए सुख समय व्यतीत होता था। कितने दिन के प्रनन्तर मैनासुन्दरी के गर्भ रहा सो अनेक प्रकार के शुभ दोहले उत्पन्न होने लगे और श्रीपाल ने उन सबको पूर्ण किया। जब दस महीने पूर्ण हो गये तब शुभ घड़ी व मुहूर्त में चन्द्रमा के समान उज्जवल कांति का धारी पुत्र हुम्रा । पुत्र-जन्म के उपलक्ष्य में राजा ने बहुत दान दिया, पूजा प्रभावना की । पश्चात् ज्योतिषी को बुलाकर ग्रह आदि का विवरण पूछा तो उसने कहा - "यह पुत्र उत्तम लक्षणों वाला होगा और इसका नाम धनपाल है :" इस तरह दूसरा पहिपाल, तीसरा क्षेत्ररथ मौर चौथा महारथ-ये चार पुत्र मैनासुन्दरी के हुये रयणमंजूषा और गुणमाला के पांच पुत्र हुए। प्रौर भी सब स्त्रियों के किसी के एक किसी के दो । इस प्रकार महाबली, धीर-वीर व गुणवान समस्त बारह हजार पुत्र हुए। वे नित्य प्रतिदिन दूज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगे । इस प्रकार महाराज श्रीपाल पुण्ययोग से प्राप्त हुए विषय-भोगों को न्याय पूर्वक भोगते । अपनी प्रजा का सुखपूर्वक पालन करते थे। वे एक दिन सुख से बैठकर विशावलोकन कर रहे थे कि हुए अचनाक उल्कापात होकर अन्तर्हित हो गया। उन्हें सभी पदार्थ विनाशीक विजलीवत् चंचल मालूम होने लगे। उन्होंने तब ही अपने ज्येष्ठ पुत्र धनपाल को बुलाकर उसके राज्य पट्ट बाँध कर तिलक कर दिया। इस प्रकार कुल परम्परागत राज्य का भार धनपाल को सौंपकर मौर स्वयं गृह त्याग वन में जाकर मोक्षसुख की साधक जिनदीक्षा ले ली और कितने ही दिनों तक कठिन तपश्चरण कर घातिया कर्मो का नामशेष किया और केवलज्ञानी होकर सदा के लिए मोक्षपद प्राप्त किया। मैनासुन्दरी ने भी जिका के व्रत ले घोर तपश्चरण कर सोलहवें स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया। वहाँ से चलकर मैनासुन्दरी का जीव मोक्ष पायगा । श्रीपाल की माता कुन्दप्रभा रानी ने भी तप के योग से सन्यास मरण कर
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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