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णमोकार ग्रंथ
अर्थ-उन १२ सभाओं में अनुक्रमसे मुनि तथा गणधरदेव १, कल्पवासी देवोंकी देवांगनाएं, २. श्रजिका, ३. ज्योतिस देवों की स्त्रियों, ४. व्यंतर देवों की स्त्रियाँ ५. भवनवासी देवों की स्त्रियां, ६. भवनवासी, ७. व्यन्तर, ८. ज्योतिषी, ६. कल्पवासी, १० मनुष्य, ११. पशु, १२. बैठते हैं । स्वर्णमाणिक्य | मयंत्री ठप्रयं ततः । अष्टचतुरचतुश्चाप। प्रपि परिस्थितिम् ||
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अर्थात् उस प्रष्ट भूमि के मध्य में बैड्र्यमणि स्वर्ण माणिक्य में तीन पीठ क्रम से पाठ धनुष हैं, चार चार धनुष ऊंचे एक के ऊपर एक स्थित हैं ।
श्लोक सोपानाः षोडवाष्टार्ता नानारत्म विचित्रताः । क्रमशः त्रिधुपीठेसु चतुमार्गेषु भांतिते ॥
अर्थात् उन तीनों पीठों में क्रम से सोलह पाठ और आठ सीढ़ियाँ नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित चारों और शोभायमान थीं। यह शोभा चारों ओर से दिखाई दे रही थी सबके ऊपर के तीसरे पीठ पर छह सौ धनुष लम्बी व इतनी ही चौड़ी तथा नौ सौ धनुष ॐ वो जिसमें रत्नों की दीपिका प्रज्वलित हो रही थी व प्रत्यन्त सुगन्धित पुष्प व ध्वजायें जिसके चारों तरफ सुशोभित हो रही थीं, ऐसी जिन भगवान के विराजमान होने की गन्धकुटी बनी थी उसके ऊपर अत्यन्त मनोहर नाना प्रकार के रत्नों से जड़ित स्फटिक मणि का बना हुआ एक सिंहासन है। उसके बीच में अत्यन्त कोमल, पवित्र व अनुपम सहस्रदलवाला एक रक्त वर्ण कमल है। उसके मध्य मार्ग में चार अंगुल अन्तरिक्ष श्राकाश में जिन भगवान् लोकाकाश व आलोकाकाश को देखते हुए विराजमान होते हैं। और जीवों के शुभाशुभ को जानकर त्रिजगपति अर्थात् तीनों लोक के नाथ श्री जिनेन्द्र देव अपनी मेघ के समान सर्वभाषा भावयुक्त निरक्षर दिव्य ध्वनि से सत्य धर्म के उपदेश की वर्षा करते हैं, और द्वादस सभाओं में असंख्यात जीव अपने अपने भवताप से संतापित आत्मा की शन्ति के लिए धर्मोपदेशामृत का पान करते हैं, जिनेन्द्रदेव के समवशरण में मिथ्यादृष्टि, अभव्य असंशी, अनध्वसायी जीव नहीं रहते । श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा है--- मिध्यादृष्टिरमव्योध्य-संज्ञी कोपि न विद्यते । यश्चान व्यवसायोपितः संदिग्ध विपर्ययः ॥
और भगवान् के समवशरण में जीवों में परस्पर शत्रुभाव भी नहीं रहता है ।
कहा भी है कि हा प्रतिष्ठायां तत्वन्निधौ वैरत्याग : ।
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अर्थ- बहुत काल तक अहिंसा धर्म पालन करने भी परस्पर में वैरभाव त्याग का व्यवहार हो जाता है। प्रभाव है ।
वाले के समीप जाति विरोधी जीवों में यह केवल जिनेन्द्र भगवान् का ही
इति समवशरण वर्णनसमाप्तः
जिन भगवान् को १००८ नामों से विनय सहित नमस्कार करते हैं:
ॐ ह्रीं श्रीं श्रीमते नमः ॥१॥ अनंतचतुष्टयरूप अन्तरंगलक्ष्मी व समवशरणरूप बहिरंग लक्ष्मी से सुशोभित हैं, इसलिए आप श्रीमान् कहलाते हैं ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं अर्ह स्वयम्भुवे नमः || २ || बिना गुरु के अपने श्राप समस्त पदार्थों को जानते वाले हैं अथवा अपनी आत्मा में सदैव रत रहते हैं, अथवा अपने आप हो अपना कल्याण किया है, अथवा अपने ही गुणों से स्वयमेव वृद्धि को प्राप्त हुए हैं ।