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________________ णमोकार प्रेष अपने आप केवल शान और केवल दर्शम के द्वारा समस्त लोकालोक में व्याप्त हो रहे हैं, प्रयया भव्य जीवों को मोक्षरूपी सम्पति को देने वाले हैं, तया द्रव्य पर्यायों को इन्द्रियादि की सहायता रहित अपने प्राप मानने वाले हैं अथवा ध्यान करने वाले योगियों को पाप प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं प्रथया लोक शिखर पर अपने माप जाकर विराजमान होने वाले हैं इसलिए आप स्व्यंभू कहलाते हैं ।।२।। ॐ ह्रीं महं वृषभाय नमः ॥३।। आप वृष प्रर्थात् धर्म से भा अर्थात् सुशोभित होते हैं अथवा धर्म की वर्षा करते हैं अथवा भक्त जमों के लिए इष्ट वस्तु की वर्षा करने वाले हैं. इसलिए आप वृषभ कहलाते हैं ॥३॥ ॐ ह्रीं अहं सम्भवाय नमः ॥४॥ आपके द्वारा सभी जीवों को सुख प्राप्त होता है एवं आप का भाव जन्म प्रत्यन्त उत्कृष्ट है, अथवा प्राप सुखपूर्वक उत्पन्न हुए हैं, इसलिए माप सम्भव वा शम्भ कहलाते हैं ॥४॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह शम्भुवे नमः ।।५।। पाप परमानन्द मोक्षरूपी सुख को देने वाले हैं। इसलिए प्राप शम्भू कहलाते हैं ।।५ *ह्रीं मह प्रात्मभवे नमः !! अाप अपने प्रात्मा के द्वारा ही कृतकृत्य हैं अथवा माप शुद्ध-बुद्ध चित्चमत्कार स्वरूप प्रात्मा में लीन रहते हैं अथवा ध्यान के द्वारा योगियों के प्रात्मा में ही प्रत्यक्ष होते हैं । इसलिए आप प्रात्मभू कहलाते हैं ।।६।। ॐ ह्रीं अह स्वयम्प्रभाय नमः ॥७॥ आप अपने आप ही प्रकाशमान होते हैं अथवा शोभायमान होते हैं इसलिए आप स्वयं-प्रभ कहलाते हैं 11७॥ ह्रीं अहं प्रभवते नमः |८| सबके स्वामी है या सर्वथा समर्थ हैं, इसलिए आप प्रभु हैं | ॐ ह्री महं भोवतये नमः ।।६।। प्राप परमानन्द स्वरूप सुख का भोग करने वाले होने से अपने प्राप भोवता हैं ।।६।। ॐ ह्री अहं विश्वभुवे नमः ||१०|| पाप केवलज्ञान के द्वारा सब स्थानों पर व्याप्त हैं, अथवा समस्त लोकों में मंगल करने वाले हैं, अथवा ध्यानादि के द्वारा समस्त लोक में प्रगट होते हैं अथवा समस्त लोकालोक को जानने वाले हैं, इसलिए माप विश्वभू हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं अह अपुनर्भवाय नमः ॥११॥ अब आपके जन्म, जरा, मरणरूप संसार शेष नहीं रह गया है प्रथवा भाप संसार में ही पुन: उत्पन्न होने वाले नहीं हैं इसलिए पाप को अपुनर्भव कहते हैं ॥११॥ ह्रीं पहं विश्वात्मने नमः ।।१२।। आप समस्त लोक को अपने समान जानते हैं अथवा आप विश्व अर्थात् केवलज्ञान स्वरूप हैं इसलिए आप विश्वात्मा कहे जाते हैं ॥१२॥ ॐ ह्रीं अहं विश्वलोकेशाय नमः ॥१३॥ तीनों लोकों में रहने काले समस्त प्राणियों के माप स्वामी हैं इसलिये विश्व लोकेश हैं ।।१३।। ॐ ह्रीं महं विश्वतच्चक्षुषे नम : ||१४॥ माप के चक्षु मर्थात् केवल दर्शन सर्व जगत् में व्याप्त है इसलिए माप विश्वतच्चक्षु हैं ।।१४।। ॐ ह्रीं मह प्रक्षराय नमः ।।१५॥ कभी नाश नहीं होते इसलिए माप अक्षर हैं ॥१५॥ ॐ ह्रीं मह विश्वविदे नमः ॥१६॥ माप षट् द्रव्यों से भरे हुए इस विश्व प्रर्थात् जगत का जानते हैं । इसलिए विश्ववित् है ॥१६॥
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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