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________________ णमोकार प्रेम पुर्णिमा के चन्द्रमा के समान परम निर्मल और पवित्र रहता था। वह अपने समय को प्रायः दान, जिनपूजा, वत, उपवास, शास्त्रस्वाध्यायादिधर्मध्यान में व्यतीत करती थी। उद्दायन अपने राज्य का शान्ति व सुखपूर्वक राज्य करने और अपनी शक्ति के अनुसार जितना बन पड़ता उतना धार्मिक कार्य में समय बिताते थे। कहने का प्रयोजन यह है कि वे सर्वथा सुखी थे। उनको किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी। अपनी कार्यकुशलता और नीति परायणता से शत्रु रहित हो निष्कंटक राज्य करते थे। एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपने देवों के मध्य सभामंडप में बैठा हुआ धर्मोपदेश कर रहा था कि संसार में सच्चे देव अरहंत भगवान है, जो कि क्षुधा, तृषा, रोग, शोक, भय, विस्मय, जन्म, जरा, मरण राग, द्वेषादि अष्टा दश दोष रहित भूत, भविष्यत्, वर्तमान का ज्ञाता, सत्यार्थवक्ता और सबके हितोपदेशक, संसार के दुःखों से हटाने वाला है । सच्चा धर्म, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौचादि दशलक्षण रूप तथा रत्नत्रय रूप है । सच्चे गुरुदेव हैं जिनके पास परिग्रह नाम-मात्र भी न हो । अर्थात् दस प्रकार के बाह्य और चौदह प्रकार के अंतरंग एवं चौबीस प्रकार के परिग्रह से रहित निरारंभी, निरभिलाषी, ज्ञान ध्यान और तप रूपी रत्न के धारक हो वही गुरु प्रशंसनीय है और वही सच्ची श्रद्धा है जिससे जीवादिक पदार्थों में रुचि होती है। यही रुचि स्वर्ग मोक्ष को प्रदान करती है । यह रुचि अर्थात् श्रद्धा धर्म में प्रेम करने से, तीर्थयात्रा करने, जिन भगवान का रथोत्सव कराने, प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराने, प्रतिष्ठा कराने, प्रतिमा बनवा कर विराजमान करने और अपने साधर्मी भाइयों में गौ तत्पवत अट प्रीति रखने से उत्पन्न होतो है । आप लोग ध्यान रखिए कि सम्यग्दर्शन एक वह श्रेष्ठ तत्व है जिसको समानता कोई दूसरा नहीं कर सकता । यही सम्यग्दर्शन' नरक, तिर्यचादि दुर्गतियों का नाश करके स्वर्ग मोक्ष सुख को प्रदान करने वाला है। इससे सर्वोत्तम रत्न को तुम धारण करो। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का और उसके आठ अंगों का वर्णन करते हुए जब इन्द्र ने निवि चिकित्सा पंग के पालन करने वाले रोरवक नगराधिपति उदायन राजा की बहुत प्रशंसा की तव इन्द्र के मुख से एक मध्य लोक के मनुष्य की प्रशंसा सनकर वासवका नामक देव उसी समय स्वर्ग से भरत क्षेत्र में आया और उदायन राजा की परीक्षा करने के लिए एक कोढ़ी मुनि का मायावी वेष धारणकर भिक्षा के लिए मध्यान्हकाल में उद्दायन के महल गया। उसके शरीर से कोढ़ गल रहा था। उसकी तीव वेदना से उसके पैर इधर-उधर पड़ रहे थे । रुधिरस्राव से समस्त शरीर पर मक्खियां भिन-भिना रही थीं । शरीर की ऐसी विकृत अवस्था होने पर भी जब बह राजद्वार पर पहुंचा और महाराज उदायन की उस पर नजर पड़ी तब वे उसी समय सिंहासन से उठकर सन्मुख पाए और भक्तिपूर्वक मायावी मुनि का आव्हान किया। इसके पश्चात् सप्तगुण सहित नवधाभक्ति' पूर्वक हर्ष सहित राजा ने मुनि को प्रामुक प्राहार कराया। राजा माहार कर निवृत्त हुए कि इतने में उस कपटी मुनि ने अपने मायाजाल से महा दुर्गन्धित वमन कर दिया । उसकी असाह्य दुर्गन्धि के मारे जितने और लोग पास में खड़े थे वे सभी वहां से चलते बने। केवल उद्दायन और उसको रानी मुनि के शरीर की सम्हाल करने के लिए वहीं स्थित रहे। रानी मुनि का शरीर साफ करने के लिए उनके पास गई । कपटी मुनि ने उस बेचारी पर भी महा दुर्गन्ध उवात्त कर दी। राजा और रानी ने इसकी कुछ भी परवाह न करके उल्टा इस बात पर पश्चाताप किया कि हमसे मनि को प्रकृति विरुद्ध न जाने क्या माहार दे दिया गया ? जिससे मुनि महाराज को हमारे निमित्त इतना कष्ट हुमा। हम लोग बड़े पापी व भाग्यहीन हैं जो ऐसे उत्तम पात्र का हमारे यहाँ निरन्तराय पाहार न हो सका। सच है कि हम जैसे पापी प्रभागे लोगों को मनोवाछित फल प्रदान करने वाला चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष प्राप्त नहीं होता।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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