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________________ णमोकार फंसकर अपने मभीष्ठ फल को प्राप्त नहीं होते। प्रतएव मुमुक्षु जनों को उचित है कि प्रथम वीतराग निर्दोष प्राप्तोपदिष्ट वीतरागता एवं विज्ञानता के प्ररूपक शास्त्रों द्वारा तथा तदनुसार प्रवर्तने वाले गुरुओं द्वारा मोक्ष मार्ग सम्बन्धी तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करें। संसार,-संसार के कारण तथा मोक्ष, मोक्ष के कारणों का यथार्थस्वरूप जान श्रद्धान करके तदनुसार दुरभिनिवेश (संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय) रहित जाने और तदनुमार ही कर्मनित विभावके दूर करने और निज स्वभाव के प्रगट करने के लिए प्रवृति करें (इसी को रत्नत्रय कहते हैं।) जब यथार्थ प्रवृति होगी तो परभावराग द्वेषादि का प्रादुर्भाव ही न होगा। जब राग द्वेषादि विकृत परिणाम ही न होंगे तब कारण का प्रभाव होने से पुन बंध कैसा बंध तो प्रात्मा के निज भावों से च्युत होकर राग वषादि स्वभावरूप परिणमन से ही होता है । जब बंध के कारण विकृत परिणमन का अभाव हा गया तो पुनः कदापि बंध नहीं होगा। जिस प्रकार जब धान पर से छिलका उतार किए जाता है दो हमल के पने पत्र करने पर भी नहीं पा सकता, उसी प्रकार जीव के भी अनादिकाल से बीज वृक्षवत् विकृन भावों से कर्म बंध और कर्म के उदय से विकृत भाव होते चले पाए हैं परन्तु जब छिनका रूपी विकत भाव प्रात्मा से पृथक हो जाता है तो फिर चावल रूपी शुद्ध जीव के अकुरोत्पत्ति रूपी कर्म बंध नहीं होता। इसी रत्नत्रय रूपी अद्भुत रसायन के बल से अनेकानेक भव्यात्मा निर्बन्ध अवस्था को प्राप्त होकर वचनातीत अक्षयानत स्वाधीन सुख के भोक्ता हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। यह रत्नत्रय धर्म दो प्रकार के हैंएक तो निश्चय रूप जो कि ठोक -यथार्थ रूप है। दूसरा व्यवहार रूप-जो निश्चयका के प्राप्त होने का कारण है। दूसरे द्रव्यों से प्रात्मा को पथक जानकर उसमें रुचि (विज्ञान) रखना सो निश्चय सम्यग्दर्शन है। निजात्मस्वरूप को विशेष रूप से जानना सो निश्चय सम्यग्ज्ञान है । निजात्म स्वरूप में विकल्प रहित तन्मय हो जाना ही सम्यक (निश्चय) चरित्र है। अब इस निश्चय मोक्ष पद के प्राप्त होने का कारण मोक्ष व्यवहार मार्ग कहते हैं । जीव-अजीव-मास्त्रव-बंध-संवर... निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्वों का जो यथार्थ स्वरूप है उसका उसी रूप श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है इसको २५ दोष रहित और पाठ गुण सहित धारण करना चाहिए । जीवादि पदार्थों के स्वरूप को संशय विपर्यय और अनध्यवसाय रहित यथातथ्य (जैसा का तैसा) जानना सम्यग्ज्ञान है। तीसरा रत्न चरित्र सकल अर्थात महाव्रतरूप साधुधर्म और विकल अर्थात् अणुव्रत रूप ग्रहस्थ धर्म ऐसे दो प्रकार का है। मुनि धर्म तो उन लोगों के लिये है कि जिनकी आत्मा पूर्ण वलिष्ठ और सहनशील है और गृहस्थ धर्म उसके प्राप्त करने की नसैनी है। जिसप्रकार एकदम सौ पचास सीढ़िया नहीं चढ़ी जा सकती उसीप्रकार प्रत्येक व्यक्ति में इतनी शक्ति नहीं होती कि एकदम मुनिधर्म ग्रहण कर सकें। उसके अभ्यास मे क्रमशः बढ़ते हुए उनमें मुनिधर्म के धारण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाए अतएव उन्हें प्रथम ग्रहस्थ धर्म धारण करना चाहिए। मुनि का धर्म (चरित्र)। पंच महाबत ५। पंचसमिति ५। और तीन गुति रूप तेरह प्रकार का है पौर ग्रहस्थ धर्म पांच अणुब्रत ५। तीन गुणनत ३ । और चार शिक्षाबत ४ । रूप बारह प्रकार का है। मुनिधर्म और गृहस्थधर्म में सबसे बड़ा भेद यह है कि मुनिधर्म तो साक्षात मोक्ष का कारण है पौर ग्रहस्थ धर्म परम्परा से । परन्तु ये भी नियम नहीं है कि समस्त मुनि उसी भव से मोक्ष चले जाते
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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