SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमोकार ग्रंथ प्रय समय इणि अंग मर्णन प्रारम्भ प्रतत्वों में तत्व श्रद्धान करना मूढदृष्टि है। यह मिथ्यात्व कर्म के उदयवश जिन्होंने गुणदोषों के विचार रहित अनेक पदार्थों को धर्मरूप वर्णन किया है और जिनके पूजन तथा नमस्कार करने से जो उभय लौकिक कार्यों की सिद्धि बताई है और उनके निमित्त हिंसा करने में धर्म माना प्रादि मूढदृष्टि अंग का धारक इन सबको मिथ्या जानता और निस्सार तथा अशुभ फल का उत्पादक जान दूर ही से तजता है और इनके धारकों में मन से सम्मत न होना, काया से नहीं सराहना. वचन से प्रशंसा नहीं करना यही सम्यक्त्वी का अमूढदृष्टि अंग के पालन करने में प्रसिद्ध होने वाली रेवती रानी की कथा लिखते हैं। विजयाई पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघकूट नामक एक प्रसिद्ध और मनोहर नगर था। उसका स्वामी चन्द्रप्रभ नाम का राजा बड़ा विचारशील और राजनीति का अच्छा बिद्वान था। उन्होंने बहुत समय तक शत्रुरहित, निष्कंटक, शान्ति और नीतिपूर्वक अपने राज्य की प्रजा का पालन किया । एक दिन वे बैठे हुए थे कि एकाएक उन्हें तीर्थयात्रा करने की इच्छा हुई। राजकार्य अपने प्रियपुत्र चन्द्रशेखर के अधीन करके वे तीर्थयात्रा के लिए चल दिए । बहुत से सिद्ध क्षेत्रों और अतिशयक्षेत्रों की यात्रा करतेकरते वे दक्षिण मथुरा में पाये, वहाँ उनको श्री गुप्ताचार्य के दर्शन हुए। चन्द्रप्रभ ने प्राचार्य से उपदेश सुना । धर्मोपदेश का उनके चित्त पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे प्राचार्य महाराज के द्वारा प्रोक्त 'परोपकारोऽत्र महापुण्याय भूतले' प्रथा परोपकार करना महान् पुण्य का कारण है. यह सुनकर तीर्थयात्रा करने के लिए एक विद्या को अपने अधिकार में रखकर क्षुल्लक बन गये। एक दिन उनकी इच्छा उत्तर मथुरा की यात्रा करने की हुई। जव चे जाने को तत्पर हुए तब उन्होंने अपने गुरु महाराज से पूछा हे दया के समुद्र ! मैं यात्रा करने लिए जा रहा है। क्या आपको किसी के लिए कुछ समाचार कहना है ? तब गुप्ताचाय बोले मथुरा में सूरत नाम के बड़े ज्ञानी और गुणी मुनि महाराज हैं उन्हें मेरा बार-बार नमस्कार कहता और सम्यग् नी धर्मात्मा रेवती के लिए मेरी धर्मवृद्धि कहना । क्षुल्लक ने फिर पूछा कि महाराज ! इन दो के अतिरिक्त क्या किसी और को कुछ कहना है ? प्राचार्य महाराज ने कहा नही। तब क्षल्लक मन में :ि:ने लगा कि प्राचार्य महाराज ने एकादशांग ज्ञाता भब्यसेन आदि मन्य मुनि तथा सभ्यक्तियों के होते हुए उन सबको छोड़कर केवल सूरत मुनि और रेवती के लिए ही नमस्कार किया तथा धर्मवृद्धि दी ! इसका कोई कारण प्रवश्य होना चाहिए । अस्तु ! जो इसका कारण होगा, वह स्वयं मालूम हो जायेगा, व्यर्थ चिंता में मग्न होने से क्या लाभ यह सोचकर चन्द्रप्रभ क्षुल्लक वहां से चल दिये। उत्तर मथुरा पहुंच कर उन्होंने सूरत मुनि को गुप्ताचार्य की वन्दना कह सुनाई। उससे सूरत मुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने चन्द्रप्रभ के साथ खूब वात्सल्य किया जिससे चन्द्रप्रभ को बहुत खुशी हुई । बहुत ठीक कहा है कि 'ये कुर्वन्ति वात्सल्यं भव्याः धर्मानुरागतः । सामिकेषु तेषां हि सफल जन्म भूलते।' अर्थात् इस पृथ्वी माल पर उन्हीं का मनुष्य जन्म प्राप्त करना सफल और सुख देने वाला है जो धर्मानुराग से सामियों के प्रति समीचीन भावों से वात्सल्य प्रेम करते हैं। इसके अनन्तर क्षुल्लक चन्द्रप्रभ एकादशौंग के ज्ञाता, न, गत्र के भव्यसेन मुनि के पास गये। उन्होंने भव्यसेन को सादर
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy