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गमोकार ग्रंथ यह सुनकर कंस ने बहुत ही संतुष्ट होकर मल्लशाला रचवानी प्रारंभ कर दी और नंद के पास सेवक को भेजकर कहलवा दिया--'मेरे यहां अखाड़े में पहलवानों की कुश्तियां होंगी । तुमको भी अपने ग्वालों सहित सम्मिलित होना चाहिए।'
यह सुनकर बलभद्र ने सब वृत्तांत श्रीकृष्ण से कह दिया और उधर वसुदेव ने कंस का यह मायाजाल रचा जानकर अपने भाइयों के बुलाने के लिए एक दूत को सोरीपुर भेज दिया । समाचार सुनते ही यादव आ पहुंचे। इधर बलदेव और श्रीकृष्ण मल्लवेष धारण कर अपने ग्वालों सहित ही वृदावन से चलकर मथुरा में प्रा पहुंचे जहां कंस ने मल्लशाला रचवा रखी थी । पहुँचते ही श्रीकृष्ण निःशंक होकर लड़ने के लिए मल्लशाला के मध्य बैठ गये।
कंस ने भयभीत होते हुये अपनी प्राज्ञा की पूर्ति के लिए चाणूर और मुष्टिक को लड़ने के लिए कहा, भयभीत होने का कारण यह था कि एक तो वह पहले ही श्रीकृष्ण का पराक्रम सुन-सुनकर चिंतातुर हो रहा था, दूसरे यादत्रगण सेना सहित आ पहुंचे थे। चाणूर और श्रीकृष्ण का तथा मुष्टिक
और बलदेव का परस्पर कुछ समय तक मल्लयुद्ध होता रहा । अंत में इन दोनों वीरों ने उन दोनों मल्लों को यम का अतिथि बना दिया। तब कंस को अपने दुर्जेय मल्लों का मरण देखकर बहुत क्रोध प्रामा ओर लाल-लाल अखि कर श्रीकृष्ण से बोला-'क्यों रे दुष्ट ! तूने मेरे मल्लों का प्राणांत कर दिया । वे तो बेचारे केबल लीलामात्र ही लड़ रहे थे यदि उन्हें तेरी यह दुष्टता मालूम हो जाती तो वे पहले ही तुझे यमपुर पहुंचा देते । अस्तु । तेरे इस अत्याचार का बदला तुझे अभी दिखा देता हूं। मालूम होता है तेरा अंत समय आ गया है ।'
- यह कहकर खड्ग लेकर श्रीकृष्ण को मारने के लिए कंस सम्मुख आया। श्रीकृष्ण ने कंस को प्राते हुए देखकर और कुछ न पाकर हाथी को बांधने का खूटा उखाड़ा और उसी के द्वारा उसके प्राण हर लिए । कंस के मरते ही उसकी सारी सेना भाग गई और सब जगह श्रीकृष्ण की प्राज्ञा का विस्तार हुमा।
कंस का अग्नि-संस्कार कर अपने नाना उग्रसेन को छुड़ाकर सब यादव-गण अपने घर आ गये। उधर जब कस राजा के श्वसुर जरासिंघ को अपनी पुत्री द्वारा अपने जामाता के मरण का समा. चार मालूम हुआ तब उसने बड़े क्रुद्ध होकर अपने छोटे भाई अपराजित को बहुत सी सेना साथ देकर यादव-गणों का नाम शेष करने के लिए भेजा दोनों सेनामों का भीषण युद्ध हुआ। बहुत-से लोग मारे गये। अंत में श्रीकृष्ण ने अपराजित को यमपुर पहुंचा दिया। मपराजित के मरते ही, उसकी सेना को जिधर रास्ता मिला, उधर भाग गयी । उधर जरासिंध ने अपने भाई का जब मरण सुना तब उसे बड़ा क्रोध प्राया। वह उसी समय विपुल सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा। इधर जब यदुवंशियों ने सुना कि रासिंध बहुत सेना लेकर चढ़ा पा रहा है । तब वे जरासिंध से युद्ध करना अनुचित जान उसे दुर्जेय समझकर वहां से चल दिए और सौराष्ट्र नगरी के समीप जाकर रहने लगे। जरासिंध नगरी को खाली देखकर थोड़ी दूर और चलकर उनको यहां न देखकर भागा हुआ जान निःशंक होकर घर पर वापिस आकर राज्य करने लगा।
तदनंतर कुछ समय व्यतीत होने पर राजग्रह के व्यापारी मिलकर व्यापार करने के लिए वारकापुरी में आये। जो कि कृष्ण तथा नेमिनाथ भगवान के रहने के लिए इंद्र की प्राज्ञासे कुवेर के द्वारा निर्माण की गई श्री उसको अपनी राजधानी बनाकर श्रीकृष्ण वहां निष्कंटक राज्य करते थे मौर वहां से बहुत उत्तम उत्तम वस्तुएं खरीदकर वापिस राजगृह आए तथा उत्तम वस्तुएँ भेंट में देकर अपने राजा से मिले । जरासिंघ ने उनसे पूछा-'तुम लोगों ने किन-किन देशों की यात्रा की और अब कहाँ से