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________________ णमोकार म १६१ विमान से लगते हुए श्रेणीबद्ध से अठारहवें श्रेणीवद्ध में तो सौधर्म युगल के युगलेन्द्र निवास करते हैं । वशेष दो इन्द्र भी दो दो श्रेणीबद्ध घटते हुए इसी प्रकार स्थित जानने चाहिए। इसका खुलासा इस प्रकार है कि सोधर्मं युगल के अन्तिम पटल के इन्द्रक विमान से लगते हुए श्रेणीबद्ध से थठारहवें श्रेणीबद्ध में दक्षिण के दक्षिणेन्द्र सोध और उत्तर के अठारहवें श्रणोबद्ध में उत्तरेन्द्र ईशान निवास करता है । सनत्कुमार युगल के अंतिम पटल के सोलहवें श्रेणीबद्ध में दक्षिण के दक्षिणेन्द्र सनत्कुमार धीर उत्तर के सोलहवें श्रेणीबद्ध में उत्तरेन्द्र माहेन्द्र निवास करता है। ब्रह्म युगल के अन्तिम पटल के atar दक्षिण श्रीबद्ध में ब्रह्मेन्द्र लाँतव युगल के अन्तिम पदल के बारहवें उत्तरेन्द्र के श्रेणीबद्ध में न्द्र शुक युगल के अन्तिम पटल के दशर्वे दक्षिण के श्रेणीबद्ध में शुक्रेद्र सतार युगल के अन्तिम पटल के आठवें उत्तर श्रेणीबद्ध में सतारेन्द्र, आनत युगल के अन्तिम पटल के छठे दक्षिण श्र ेणीबद्ध में आनतेन्द्र और उत्तर के पले श्रेणीबद्ध में पाणतेन्द्र धारण युगल के अन्तिम पटल के छठे दक्षिण श्रेणीबद्ध में आरणेन्द्र और उत्तर के श्रेणीबद्ध में अच्युतंन्द्र निवास करता है । जो इन्द्र का नाम होता है वह ही उसके कल्प का नाम और जो कल्प का नाम होता है वह ही इन्द्र स्थित (इन्द्र के रहने के ) विमान का नाम होता है। जैसे सोधमेन्द्र कल्प का नाम सोधर्म और उसके रहने के विमान का नाम सौधर्म विमान है - इसी प्रकार अन्यत्र जानना चाहिए। दक्षिण दिशास्थ इन्द्रों के विमानों के चारों पूर्वादि दिशाओं में रुचक, मंदर, अशोक, वैड्य, रजन, अशोक, मृषत्कसार नाम के सात विमान और उत्तर fata इन्द्रों के विमानों की पूर्व प्रादि चारों दिशाओं में रुचक, मंदर, अशोक और सप्तच्छद संज्ञक चार विमान होते हैं । सौधर्म स्वर्ग से लेकर सहस्त्रार पर्यन्त के बारह कल्पों और मानत तथा श्रारण युगलों देवों के मुकुटों में क्रम से – (१) सूर (२) हिरण (३) भैंसा (४) मांडला (५) चकवा (६) मैक (७) ग्रश्व (5) गज (६) चन्द्रमा (१०) सर्प (११) पङ्गी (१२) वा (१३) बैल और (१४) कल्प वृक्ष - ये चौदह चिन्ह होते हैं । श्रागे इन्द्र के नगर के विस्तार और संस्थान तथा प्राकारादि के उदय यादि का वर्णन लिखते हैं इन्द्रों के नगर का विस्तार सौधर्म स्वर्ग में चौरासी हजार, ईशान में अस्सी हजार, सनत्कुमार में बहत्तर हजार, माहेन्द्र में सत्तर हजार, ब्रह्म युगल में साठ हजार, लॉतव युगल में पचास हजार, शुक्र युगल में चालीस हजार, सतार युगल में तीस हजार, धानत आदि कल्प चतुष्ट्य में बीस हजार, योजन प्रमाण है । ये सब नगर सम चतुरस्त्र अर्थात जितने लम्बे हैं उतने ही चौड़े चौकोर हैं। और चारों तरफ प्राकार अर्थात कोट है । सौधर्म युगल के प्राकार का गाध (नीम ) पचास योजन, विस्तार पचास योजन श्री उदय तीन सौ योजन है। सनत्कुमार युगल के नगरों के प्राकार का गाध पच्चीस योजन विस्तार भी पच्चीस योजन और उदय अढ़ाई सौ योजन है। ब्रह्म युगल के नगरों के प्राकार का गाव व विस्तार साढ़े बारह बारह योजन और उदय दो सौ योजन है। लाँतव युगल के प्रकार का गाध व विस्तार सवा छह योजन और उदय एक सौ पचास योजन है। शुक्र युगल के प्राकार का गाध वविस्तार चार योजन और उदय एक सौ बीस योजन है । सतार युगल के प्राकार का गाव व विस्तार तीन तीन योजन और उदय सौ योजन हैं और मानत चतुष्क के प्राकार का गाध व विस्तार प्रढ़ाई पढ़ाई योजन और उदय अस्सी योजन प्रमाण हैं सौधर्म युगल के इन्द्र नगरों के प्राकारों की प्रत्येक दिशा में चार चार सौ गोपुर सौ योजन उदय और सौ योजन विस्तार वाले गोपुर अर्थात दरवाजे हैं ।
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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