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________________ णमोकार च कर्मबन्ध से छूटकर स्वात्मोपलब्धि को पा लेता है । शात्मसिद्धि का उपाय रत्नत्रय की प्राप्ति है । आत्मा मुक्त वस्था में अपने शाश्वत ज्ञानानन्द में मग्न रहता है। मुक्तात्मा के सभी कार्य सिद्ध हो चुके हैं। इसी से वे कृतकृत्य, निष्कलंक, बोस्कल्मष, सिद्ध, निरंजन, और अजर अमर कहे जाते हैं । ग्रतः जन्म-जरा-मरण से छूटने और अविनाशी सुख प्राप्त करने के लिए आत्मा को रत्नत्रय की धाराधना एवं उपासना जरूरी है। रत्नत्रय की प्राप्ति के विना स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति संभव नहीं है । रत्नत्रयश्रात्मा की अमूल्य निधि है। जिन जीवों ने सांसारिक भागोपभोगों का परित्याग कर श्रीर दीक्षित होकर तपश्चरण द्वारा आत्मा का शोधन किया है और घोर उपसर्ग एवं परिषहों से जरा भी विचलित नहीं हुए प्रत्युत उसमें तन्मय रहे हैं। उन्होंने ही निराकुल सुख का उपभोग किया है। मुक्ति प्रकाशक होने से जिसने स्त्र औौर पर के भेद विज्ञान द्वारा इस लोक में लोकोत्तर महिमा प्राप्त की है। मोहरूपी अन्धकार को दूर करने वाले उस परम तेज रूप रत्नत्रय को निरन्तर नमस्कार हो । सम्यग्दर्शन. जीव, जीव, प्रसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष रूप सप्त तत्वों का विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। धर्म का मूल सम्यग्दर्शन ही है । सम्यग्दर्शन को बड़ी महिमा है उससे ही जीव का कल्याण होता है । सम्यग्दर्शन की महत्ता का बोध इसी से होता है कि सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चरित्र सम्यक् नहीं हो सकते | इनकी समीचीनता का द्योतक सम्यग्दर्शन है । यह मोक्ष रूपी महल की पहली सीढ़ी है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक् नहीं हो पाते । इसी से सम्यग्दर्शन को धारण करने की आवश्यकता बतलाई गयी है। जो जीव सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट ही हैं। उन्हें मोक्ष नहीं मिलता। क्योंकि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट होते हैं वे नियमत: ज्ञान और चारित्र से भी भ्रष्ट होते हैं । इसी से वे मोक्ष मार्ग से दूर ही रहते हैं । ऐसी स्थिति में वे मोक्ष के पात्र कैसे हो सकते हैं। जिस तरह वृक्ष के मूल (जड़) के बिनिष्ट हो जाने पर वृक्ष की शाखा उपशाखा मौर फलादि की वृद्धि नहीं होती उसी तरह धर्म के भूल सम्यग्दर्शन के विनिष्ट होने पर धर्म के परिवार स्वरूप ज्ञान मीर चारित्र मादि की वृद्धि भी सम्भव नहीं है । अतएव सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव मुक्ति का पात्र नहीं होता | १. मुक्तेः प्रकाशक तथा समवापि येन, लोकोत्तरो व महिमा स्वपरावाध्य । विश्वस्त मोहतपसे परमाय तस्मै, रत्नत्रयाय मह्ते सततं नमोस्तु ||२० २. दंसणमूलो घम्मो उवदिट्टो जिणवरेहि सिस्साणं । दंसणपाहुण २ ३. मोक्ष महल की प्रथम सीड़ी या बिन ज्ञान चरित्रा । सम्यकूता न लहे सौ दर्शन घारो भव्य पवित्रा | छहढाला - पं० दौलतराम ४. (क) जमूलम्मि विणले दुमएस परिवार पत्थिपरिवडि । तह जिणदणभट्टा मूलविणा ण सिज्यंति ।। दंसण भट्टा भट्टा, सण भट्ठस्य पश्थिविष्वाणं । ४. (ख) विद्या वृत्तस्य संभूति स्थिति वृद्धि फलोदयः ११ दंसण पा० १० दंसण न सन्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव । रहन करण्श्रावकाचार ३०
SR No.090292
Book TitleNamokar Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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